Friday, February 28, 2014

क़ुबूल

चलो बाँटें
लूट का माल
कर सही
हिसाब,
ईमानदारी से
बराबर
हुआ था
जो तय
भगवान समक्ष
ले शपथ
भरोसे पे
दिल में
एक दूसरे के।

आओ
बाँटें
लूट का माल
किया जो हासिल
मेहनत से
करके तैय्यारी
लाजवाब,
रखके भरोसा
ख़ुद पर
ख़ुदा पर,
हुए
बिन
हतोत्साहित
भयभीत
विचलित।

आओ बाँटें
लूट का माल
और करें
क़ुबूल
जो कुछ है
छोटा बड़ा
कम ज़्यादा
समझके
हुक्म
उसका
झुकाके सर।

सुबह

"पापा,
क्या सूरज
सुबह
फिर आएगा?”
मोनू नें
पापा से पूछा ।

"ज़रूर आएगा
बेटा
अब सो जाओ”
पापा बोले।

यह सुन
मोनू
मुस्कुराया
और
सो गया ।

"पापा,
क्या मोनू
सुबह
फिर जागेगा?”
चाँद नें
ख़ुद पर
चमकते
दूर ढले
सूरज से पूछा ।

"ज़रूर जागेगा
बेटा”
पापा बोले।

चाँद
यह सुन
मुस्कुराया
और
मोनू को देख
सारी रात
जागता रहा।

Thursday, February 27, 2014

सुर्खरू

आलिंगन में
हूँ तेरे
जैसे बेल हूँ
तेरी,

डूबा हूँ
तुझमें
जैसे
भँवर तू मेरी,

उड़ता हूँ
तुझसे
मेरा चक्रवात
है तू,

चमकता हूँ
तुमसे
जब गिरते हो मुझपे
बन बिजलियाँ कड़कती,

ले जाओ बहा
अपनें समन्दर
कश्ती की तरह
लहरों पे अपनी,

कर दो
सुर्खरू
भरो माँग मेरी
चाहत से अपनी ।

सिक्के

सफ़ेद
मुरझाई
भूखी
भिखारिन
अम्मा को
मिले तो ज़रूर
दो दस रुपये
पर
सिक्कों में
नए ।

जो
देख
न समझ पाईं
फ़र्क,
कमज़ोर
अनपढ़ आँखें,
होनें दिया
व्यापार
नए सिक्कों से
लगाये
भोजन की आस ।

मिली जो
बदले में
बस चाय
बुझाई
अम्मा नें
उसी से
उस दिन की
भूख
की प्यास ।

इल्तेजा

ताउम्र
पहनने के बाद
हिजाब,
की इल्तेजा,
कफ़न
गर
काला न देते
बेहतर था |

हक मेहर
इतना तो
अदा करते
आँखों की जगह
रखते इसकी भी खुली
इनायत करते |

लगता
हमें
अभी ज़िन्दा हैं
पर्दा ही तो है
हवा के पीछे न सही
ज़मीन के नीचे

Wednesday, February 26, 2014

दिल

कैमरे
और
एक्स रे
फोटोग्राफिक प्लेट सा
दिल मेरा
क्यों?

जो दिखे
छप जाता क्यों?

जो मिलता
पार उसी के
दिखता क्यों?

विकिर्णें
रहती
भेदती
इसे
क्यों
दिन रात?

देती नहीं
सोने
अँधेरे में भी
चुपचाप
क्यों ?

कहो तुम

हिन्दू हो
या मुसलमा
कहो तुम ।

लिए तुम्हारे
बुलाऊँ ईश्वर
या पुकारूँ ख़ुदा
कहो तुम ।

करूँ नमन
या कहूँ आदाब,
लगाऊँ
या कि मिलूँ गले,
करूँ घूँघट
या पर्दा करूँ
कहो तुम ।

गाऊँ भजन
करूँ अदा नमाज़,
कहूँ श्लोक
या कलमा पढूँ,

जलाऊँ
या दफनाऊँ तुम्हें
बनूँ मिट्टी
या आग बनूँ ।

उलझी लटें
कशमकश की
ज़रा सुलझाओ तुम
हिन्दू हो
या मुसलमा
बताओ तुम ।

कूआँ

चीखती दुनिया
की
तपती धूप
जब मेरे अंदर के
सारे खेत
सुखा,
डाल देती
गहरी दरारें,
जीवन का वृक्ष
हो जाता ठूँठ,
जाकर
अपनें
किसी कोने
ख़ामोशी के कूएँ से
भर लाता हूँ
सुकून का पानी
बाल्टियों भर
उंडेलता हूँ
तपते ख़ुद पर
भर लेता हूँ पूरा
रोम रोम
लबालब,
तैयार
अगले मौसम की
नई फ़सल को ।

सवाल

रास्ते बन चुके
सारे
सवाल |
पगडंडियाँ ही हैं
अब जवाब,
आओ
ढूँढें
चलें |

घड़ियाँ
पुरानी
उन्हीं पर
होंगी पड़ी
अभी भी
चलती
सही |

दें चाबी
फिर,
करें
सही वक्त
और पहनें
सजायें
रेखाओं वाले
हाथ की
वही कलाई|

रास्ते बन चुके
सारे
सवाल |
पगडंडियाँ ही हैं
अब जवाब,
आओ
ढूँढें
चलें |

कीमत

क्या निकालते हो कीमत बार बार जेब ए कमीज़ से
दो अश्क चार कतरा लहू तो बहा दो तमीज़ से ।

प्यास

प्यास की तस्लीम से पेश्तर जाम ए सुबू फ़िज़ूल है
अमल ए तजवीज़ मुश्किल, नामंज़ूर ए ख्वाहिश है

Tuesday, February 25, 2014

पत्ते

क्यों हैं पत्ते खुश
झड़ कर भी?
हैं आतुर
शायद
नया बनने को
नहाकर
मिट्टी में

दहलीज़

खड़ा हूँ दहलीज़ ए दोज़ख़ ए कश्मकश
होनें को हूँ गुमराह या पहुँचनें को हूँ

चीं

चिड़िया तेरी चीं में भी है रुक्का ख़ुदा का
लगे हैं लाखों दहाके क़ायनात को पहुँचानें में

महफ़िल

लाज़मी तो नहीं सूरज भी ढले, शम्मा भी जले तो महफ़िल में तू आये
दबे पाँव ख्यालों में तेरा आना किसी क़यामत से कम तो नहीं

कृति

गलतफ़हमी थी, है अव्वल उसकी कृतियों में कृति
मिट्टी बना तो मिट्टी से भी खुशबू आई ।

सुर

विराट का सुर
सूक्ष्म का शोर,
यही तो भूल हुई
यहीं से जुदा हुए ।

भूकंप

भूकंप के झटके
इन्टरनेट से हो
अखबारों से गुज़र
दीमागों तक पहुँचे
मीलों दूर|

मदद के हाथ
पहुँचे
बैंकों से निकल
ड्राफतों पर बैठ
लिफ़ाफ़ों पर चढ़
टिकेट से लिपट
राहत कोष
की सुरंग से
भूकंप के केंद्र
में
माफ़िया तक |

दबे हुए
रहे दबे
कोई न बोला |

पीछे
सबको
मिल गयी
सुकून की साँस
रसीद
और
टैक्स छूट |

Monday, February 24, 2014

मन मत्त

मन नीवाँ
मत्त उच्ची
केहा सी वीरजी
मन उच्चा
ते मत्त नीवीं
नईं सी केहा ।

ज़रूर
तोहानु
कोई
भुलेखा लगया है।

सुनण च
या समझण च
गलती लग्गी है
शायद ।

कोई गल्ल नहीं।

दिल ते न लवो
हुण ठीक कर लवो
मन नूँ
झुका के
मत्त नूँ
चुक्क लवो।

दाना

लिखते हो
दानें पर
किस स्याही से ?
दिखता नहीं नाम
मेरा ।

पहुँचता है
लेकिन
ठीक मुझ तक
हर रोज़
हर बार
हैरान
वही दाना
सही वक्त ।

आता है स्वाद
नाम का मेरे
उसपे
लिखते हो जो तुम
जानें किस स्याही ।

सामान

रख तू अपनें पास
जो मिला तुझे
दिया
पहुँचाया तेरे पास ।

है नहीं तेरा
भेजा नहीं तुझे
अमानत है मेरी
पास तेरे।

है कुछ ख़ास
छिपा इसमें
अन्दर
नीचे ।

सोच मत
गर न आए समझ
न दिखे,
तू रख अपनें पास
ख़ुशी से
समझ मेरा सामान,

आँसू,
मुश्किलें,
दर्द,
सलीब की कीलें ।

मेहमान

और कुछ
बची हो
आज की
ताज़ा
बे ईमानी
तो ले आइये
परोस दीजिये ।

आये हैं
मेहमान
घर आपके,
रसोई में आपकी
आज की
पशेमानी
बाकी
न रह जाये
कल के लिए ।

शिकायत

यही सोच
मैं
रेस्त्राँ के
नापाक गिलास में
पानी पी गया,
कहीं
शिकायत पे मेरी
पूंजीवाद
उस
बेचारे
समाजवाद को
नौकरी से न
निकाल दे ।

शहर

आज भी
जब
शहर में
गाड़ियों के
शोर के बीच
तोते की आवाज़
कभी
कहीं
सुन जाती है
मन
शहर में
कुछ दिन और
रहनें को
मान जाता है
मना नहीं करता ।

Sunday, February 23, 2014

शान ओ अंदाज़

जब तक
उस शख्स़
के दायें हाथ
की मचलती उँगलियों में
वो सिगरेट
जलेगी
यूँही
शान ओ अंदाज़ से
दुनिया
समेटता
पटकता
रहेगा
आपकी ।

बुझेगा
तभी
वो
धुएँ सा शख्स़
जब
उसकी
तिश्नगी* ए ख़ुद एत्मादी**
सिगरेट
के साथ
बुझेगी ।

* प्यास
** self confidence

शिखर

शिखर पर पहुँच
हाथ पाँव
मत मारिये
बस कीजिये ।

फिसलनें
उतरनें
चढ़नें
की
ज़िद
लत
छोड़िये,
कुछ तस्वीरें
खींचिए
बनाइये,
ठंडी साँस भरकर
आँखें मूँद
लिल्लाह
जागिए

अख़बार

जब वो
10 दिन
अख़बार फेंकने
नहीं आया
मुझे आया बहुत गुस्सा
खूब झुंझलाया ।

पहले सोचा
आने दो
पैसा लेनें
बताता हूँ,
फिर सोचा
ख़ुद ही जाऊँ
ढूँढूं उसे
लताडू ।

कई सुबह
हुई बड़ी मुश्किल
सूरज आये भी
दिन जगने को ।

दुनिया की रेल
के छूटने
की सीटी
सुनती रही
हर सुबह
देर तक ।

तरह तरह के ख़्याल
मचाते रहे
हुडदंग
ज़हन के
बिन बाड़ वाले
मैदान में ।

वतन ए ख़याल ए आज़ादी
बदअमनी
फैलने को थी ।

पर
फिर
एक सुबह
जब
होश की
ऊँची
चारदीवारी
के बाहर से
कोई शोर
न सुना,
और
न जानें क्यों
अच्छा सा लगा,
दिल नें
हौले से
तमन्ना की
कि
वो न आये
अख़बार फेंकनें
अब ।

आएगा
जब भी
हर महीनें
बिल लेकर
दे दूँगा
यूँ ही...

देता रहूँगा
हमेशा
तब तक
करे अगर वादा
नहीं फेंकेगा
खबरों
के कोयले
मेरी शांति
के तिनकों में
सुबह सवेरे ।

गलती

क्यों जलाते हो खूँ ये सोचकर
पैदा हुए यहाँ क्यों, वहाँ क्यों नहीं
आप आप थे नहीं, आप के आनें से पहल
आपकी गर नहीं है, गलती ख़ुदा की भी नहीं

Saturday, February 22, 2014

पापा

पापा
कहाँ हो तुम
ढूँढता हूँ तुम्हें
हर अलमारी
कमरे
दरवाज़े
गली
कूचे
देश
दुनिया...

कहाँ हो तुम |

यहीं हो
या सितारा बन
छिपे हो
आसमां में
बादलों के पीछे
खेलते
आँख मिचोनी...

कहो न
कहाँ हो?

अब हो गया हूँ
बड़ा
समझ सकता हूँ
तुम जो कहते थे
मैं समझता न था |

कहना चाहता हूँ
वो
जो
तुम सुनना चाहते थे,
मिलो तो
फिर सुनूँ
मिलो तो
अब कहूँ |

कहता हूँ
लिखता हूँ
करता हूँ बातें
क्यों
जानता हूँ
तुम तक पहुँचता है
देखते हो
सुनते
कहीं से
चुपके से
मुझे
छिपकर |

आ जाओ
एक बार
फिर
सामनें
देखूँ
फिर
तुम्हें
मुझे देखते
उन्हीं आँखों से
बोलते
पुकारते
मेरा नाम...

पापा
कहाँ हो तुम...

कह दो
कहीं हो तुम
आसपास...

खिड़की

एक खिड़की
मेरे कमरे की
लम्बी दीवार टंगी
चौड़ाई की ओर
खुलती है
बस एक इशारे
रात अँधेरे
मुहँ उजाले |

ले आती है
दुनिया
मुझ तक
करने
मुझे
खुश
रौशन
सराबोर
भरनें मेरा खालीपन |

है दुनिया के लिए
बड़ी
निकल आती है जो सारी
उसमें से
मुझ तक
पर
मुझ से है छोटी
नहीं जा सकता
उसमें से
मैं
ख़ुद से बाहर
कहीं |

कैद हूँ
सदियों से
खिड़की के
इस तरफ़
इस खुले
कमरे |

हैं दरवाज़े
तो बहुत
घर में
खुलते हैं जो
सड़क
बाग़
पहाड़
नदियों
पर,
नहीं है
मगर
खिड़की
दुनिया की
उस जैसी
कोई और |

क़ुबूल

क़ुबूल ए वक्त तक आता रहा
नामौजूदगी ए नामंजूरी से जाता रहा

फ़ुर्सत

शेर पढ़नें की शय हैं सुनने की नहीं
हर ज़हन चबाता है बात फ़ुर्सत से

कल और आज

नहीं मतलब पिछले अगले कल का कोई दूसरा
सिवाय इसके कि मौका हैं दोनों पहला तीसरा

सफ़र

समझते थे ज़िन्दगी को सफ़र, सफ़र में रहे
आया जो समझ राज़ ए सफ़र, पहुँच गए

निगाह

नहीं है जो तेरी हद ए इख्तियार में
छोड़ दे उसे निगाह ए रसूल ए पाक में

जन्नत

वक्त ए रुख़सत जो मिला था बाग़ ए फ़िरदौस*
उसे बिगाड़ लिया तो जन्नत के लिए मरना पड़ा।

* garden of heaven

फ़रियाद

लब ए फ़रियाद से वो नहीं हम ही पहुचेंगे पास उनके
जानते तो लबों की बनिस्बत पैरों से चलते जल्द पहुँचते

फ़ुर्सत

इतवार को इतवार की ही फ़ुर्सत में बनाया होगा
दौड़ धूप में तो सोमवार या वीरवार ही बनते ।

कोना

कहाँ छिपाऊँ वो कोना जो बीच में है
कैसे लाऊँ बीच को इस बीच जो कोनें में है?

हाथी

शरीर के हाथी पर
दीमाग का महाउत
होश का अंकुश ।

बेहोशी के हाथी तले
दीमाग की मौत
शरीर निरंकुश ।

कहानी

लफ़्ज़ को है याद हर कहानी जिसमें वो था
चखता है हर ज़बान, किरदार पहचानता है ।

साहिल

समन्दर तले कब्र क़ुबूल न थी, ज़हीन थे
साहिल पे खड़े रहे, वहीँ दफ़न हुए ।

हवा

बहुत दिन हुए, चलो कुछ आब ओ हवा बदलें
आब ए चश्म* को रोकें, वक्त की हवा बदलें ।

*आँसू

ख़त

ज़मीन से फ़लक तक पहुँचाते हवाई तो उन्हें देखा न था
मगनून हूँ,पहुँचाया मुझे ख़त ओ खुसूस टिकट बन कर

Friday, February 21, 2014

दुश्वारी

ज़रूर करते ये हसरत भी आपकी पूरी,एक दुश्वारी है
अभी इत्तेफाकन याद आया, ये ज़िन्दगी हमारी है |

प्यार

क्यों चाहते हो सुन्दर दिखना, क्यों है तलब कोई प्यार करे
ढूँढ लीजे जनाब कोई काम ज़हीन, पेश्तर कोई आप को बेज़ार करे |

ताज

पहनें सर पर या रखें कदमों में इसे
ताज ही है या इस में सर हमारा है?

या फिर

सफ़ेद आसमान में दूर वो जो नीला तारा है
है भी सही या फिर वही फ़ितूर हमारा है ?

ज़रूर

ख़ुदा करे, ख़ुदा हो ज़रूर
मेरे लिए न सही तो ख़ुदा के लिए

Thursday, February 20, 2014

मिट्टी

कहते थे जो अर्श से कि मिट्टी तू क्यों नहीं उड़ती?
पहुँचे ज़ीर ए ज़मीं*, तस्लीम किया, हाँ तू ही थी उड़ती ।
* underground

Wednesday, February 19, 2014

अशार

आ जाते है कलम ए ज़बान, बुलाता नहीं हूँ मैं
महफ़िलों के उदास अशार को, बर्गलाता नहीं हूँ मैं

उम्र

कितनी है उम्र, कितना जिया हूँ,
गिन लो मेरे अशार, तकसीम ए सुबह शाम कर लो

नमाज़

न सिजदे में है सर, न घुटनें ज़मींदोज़
चलती फिरती नमाज़ हूँ, बेख़ौफ़ बे सोज़

टुकड़ा

ख़ुदा नहीं है ख़ुदा का टुकड़ा तो है,
जी टुकड़ा ख़ुदा मानिंद, शुबा क्या है।

कीमत

बिक ही जाऊँ गर कीमत हो मुनासिब, लाज़मी तो नहीं,
बेशकीमती होनें का गुरूर भी कोई कम तो नहीं ।

Monday, February 17, 2014

चिड़ियाँ

चिड़ियाँ मेरे घोंसले की
जब सब उड़ जाएँगी,
रह जायेगा पीछे जिस्म
तिनकों की हिफाज़त को,
रूह उनके परों पर
बैठ उड़ जाएगी ।

दुनियाँ

कितनी दुनियाँ अभी और, मेरी इस दुनियाँ में हैं
मयस्सर इस बात पे, कितना ख़ुदा और मेरे ख़ुदा में है

सदा

बहुत सदा दी और खिड़की न खुली
हम मुड़ चले जहाँ से,जिद छोड़ दी,
देखा जो उह्नोंनें कि वो कहाँ गए
उठा लाये सारी दुनिया,कदमों में डाल दी

नाराज़गी

न जाने कौन सी थी नाराज़गी कहाँ की कहाँ निकली,
थी उजड़े किले की सलामत सुरंग, कहाँ की कहाँ निकली

घोड़े

तेरे घोड़े, तेरे रथ, तेरे महलों की वाह बात क्या है,
मगर ये तो बता, इन सब के बगैर, तेरी औकात क्या है

Sunday, February 16, 2014

औलाद

शेर ओ औलाद को कर के पैदा भूल जाता हूँ,
हवायें उठा लेती हैं गोद में, पाल लेती हैं ।

तब तक

लिखता नहीं हूँ तब तक, रोम रोम वाह न करे,
वाह न भी सही, दिल ओ दीमाग आह तो करें

मुरम्मत

जहाँ जहाँ ढीली हो, कसते रहिये,
ज़िन्दगी की मुसलसल मुरम्मत करते रहिये

शर्त

दर्ज करनें को कहा था सबकुछ चुपचाप,
आँखें भी मूँदनी थी बा मंज़र, ये शर्त कहाँ थी ।

तौबा

जज़ीरों से न निकलें
टीलों से न उतरें,
सुनानें को हों आतुर
सुननें को न मचलें,
ऐसे शायरों से तौबा
ऐसी महफ़िल से निकलें

भ्रम

मुमकिन है
कोकून के
अन्दर की
रेशमी दुनिया
बा काफ़ी
स्वर्ग लगे,
लेकिन,
चुनाँचे
वो कोकून है
भ्रम है |
इस पूरे स्वर्ग
से मुक्ति
आधा असली
स्वर्ग
स्वयं है,
अगरचे कम है|

मसला

दुनिया खड़ी
बंटी
जहाज़ ए वक्त के
पंखों पर,
इधर
उधर...

खींचता
हर कोई
हर किसीको
अपनी ओर....

जाता किधर,
क्यों कर,
ये उड़ता अस्तित्व
जीवन का
ये बाद की बात,
कौन सही
कौन गलत
ये बाद की बात,

कौन कौन
किस तरफ़
रहें बराबर
अभी,
मसला
पहले इसी का है |

पहुंचेगा कहीं
गर गिरेगा नहीं,
परवाज़ कहाँ
गर तवाज़ुन* नहीं |

* balance

Saturday, February 15, 2014

डर

उन्हें पता था
प्यार पे उनके
सबको शुबा था,

प्यार से
दुनिया
समेटते रहे,

हम डरते रहे
डर डर के सिकुड़ते रहे

पैरों तले

मैं रखता रहा वसूख से ता-उम्र जिन्हें पैरों तले ,
उठाई उन्हीं नें हस्ती मेरी, हर सहर से शब ढले |

बरस

अस्सी एक बरस दिए थे
उसकी नज़र में काफ़ी थे,

किसकी नज़र किये जनाब नें,
जनाब जानें |

बाज़ार

गया था
सज धज
इत्र लगा
बाज़ार देखने,
कब चीज़ों से
बदल गया
राम जाने |

थे जो
रूपये पैसे
जेब ए नक्शीन
खरीदने
कुछ मनपसन्द,
उन्हीं से बिक गया
मैं कैसे जाने..

कौन लौटा
फिर घर
कैसे कहूँ,
मैं तो हूँ
पीछे
बाम ए नुमाइश
दहलीज़ ए घर पर कौन
कौन जाने

मेरा

जो नहीं मेरा उस पर कैसा दावा
खुद पर भी तो दावे का दावा नहीं है

ताप

मानता हूँ सूरज के ताप ने ही पिघलाई होगी ज़माने की बर्फ़,
कुछ तो इयानत* मगर मेरे लफ्ज़ की रही होगी              

(*contribution)

कौन

जाड़े की
जमी ओस सी
सुबह से पहले
मुहँ अँधेरे
कोई
रजाई का
मुहँ हटा
कानों में
क्या फुसफुसाता है,
कोई नई बात कहता है
दोहरवाता है तब तक
नींद में
जब तक
याद न हो
होश के लिए,
और जब
खुल ही जाती है नींद
उठके देखता हूँ
न रजाई
न छत
न बादलों में ही
कोई पाता हूँ
कौन आता है मुहँ अँधेरे
मुहँ छुपा
उड़ जाता है

होश

तेरी मर्ज़ी
तू अब
रुक न रुक,
जितना चाहे
अब बरसले,
शीत युग
जिससे डरते थे
कब का आ चुका
हर तरफ़,
तेरे हिमपात से ही
शायद
दुनिया को
होश आये

वो भी

कीलें ही कीलें
सारे बदन में
उसके भी,
अपनी
क़यामत से
खड़ा
वक्त के दलदल में
धंसा
कमर तक,
उठाये सलीब
मुस्कुराहट की
वो खुशबूदार
मसीह सा
गुलाब

सन्नाटा

इतना सन्नाटा सा
क्यों है
दुनिया सारी सोई है
या सो ही गयी है?
मैं जल्दी उठ गया हूँ
या मैं ही बचा हूँ?
पर्दे के दरीचे से
दिखती है
बाहर
कालिख के बीच
पौ फटी है
या किसी और वक्त के
और आसमां का
रंग ऐसा है?

जल्द कहो
हर तरफ़
सन्नाटा सा क्यों है?

चिंगारी

आग जो बुझाई आपने, तेल भी हटा लेते
जब जब दिखता है, चिंगारी सी भड़काता है |

ज़मीं

उतरिये
मसनद से,
बैठिये
फिर सुनिए,
आसमां में कैसे कह दें
जो बातें
ज़मीं की है

बीमार

कहते हैं
कल रात
हमें सुनकर
वो
मयख्वार हुए

न प्याला,
न मय,
न आँखें,
खुदाया
फिर
क्या सबब
किस महफ़िल
बीमार हुए !!!

Friday, February 14, 2014

सही गलत

वो गलत भी लगे और सही भी
सच्चाई उनकी
गालिबन
दरमियाँ सी थी

पर्दा

आँखों से जब करते हैं इल्तेजा,
समझते हैं मुहँ में जुबान नहीं है

आँसू

आसान था रूककर मातम मनाना,
जब पसीने में आँसू बहाए हमनें ।

दरवाज़ा

रोज़ रखता हूँ दरवाज़ा खुला और कागज़ भी
रोज़ कोई लिख देता है कलाम, भीतर नहीं आता

उम्मीद

अभी तक हाथ में हैं
कल शब जो लबों से गिरे थे,
अंगार होते तो बात और थी
आशार ओ जिगर थे, उम्मीद से थे

रास्ता

हम रास्ते में रास्ता भूले हैं
ये रास्ता हमारा नहीं है,
निकले थे सैर ओ बाग़ को
ये जंग ये जद्दो जहद हमारी नहीं है |

तलवार

बहुत ज़रूरी है कलम का हाथ में पुख्ता होना
तलवारबाज़ी हो लचर तो गर्दनें कट जाती हैं |

खामोश

सुनते वक्त
कान ही हों मुस्तैद
काफ़ी नहीं,
ज़ुबान ओ दीमाग़ को भी
खामोश होना चाहिए |

आदत

इक जूये की आदत थी ग़ालिब को
और इक हमें है,
देखें वजीफ़े की तवक्को में
हम कहाँ कहाँ ज़लील हों
कब दम निकले

नानी

रुई दी रजाई पिंजी
नानी मेरी नें
स्वर्गां च तन्द तन्द के
ते भेजी मिंजी
सर्दी चल्ले
बदलां दी पंड बन के |
चन्न दी बणाके रोटी
चोपड़ के प्यार नाल
मार के हनेरी बुक्कल
हथ च लिहाई लको |
तोड़ के गराई छोटी
हंजुआं च सेड के
चुम के असीसां नाल
पाई मेरे मुहँ खोल |

कित्थे एं तूं नानी बोल
प्यार दे ओ बूए खोल
निग्गी छाती नाल लगा
मेरी सारी कम्बणी मुका |

तेनू याद करे ओ निक्का
जिदी गोलक तेरा सिक्का,
जिदी अक्खां सुपने तेरे
चमकण तारे गुप्प हनेरे,
जिदे बुल्लां ते हासे तेरे
मत्थे, तेरे चुम्म दे निशान |

याद आई ए नानी प्यारी
जरूर होवेगी आसे पासे
तकदी होवेगी आसाँ नाल
बचा के रक्खे स्वासां नाल |

Thursday, February 13, 2014

अर्ज़

कर दिया है अर्ज़
शायर नें साँस छोड़ी है,
मिले जो दाद
तो वापिस आये, बात बढ़े

Wednesday, February 12, 2014

शुक्रिया

शुक्रिया के इंतज़ार नें
बढ़कर
कीमत वसूल ली,
रह गया देखता
मेरा ज़मीर
तिजारत हो गयी

अंदाज़

वो बात
की लकड़ियाँ
और ये
अंदाज़ ए आतिश,
खूब आया
हमें
गुबार ओ राख़
बनाना

खेल

सर्दियों
की सुबह
सड़क किनारे
लिफ़ाफ़े जला
छोटी सी
आग तापते
माँ को तो पता था
कि वो
भिखारी हैं
कोई घर नहीं है
उनका,
नन्हे बच्चे को
क्या थी इल्म
घर होता है क्या
जो नहीं है,
उसकी जानिब
खेल था
लिफ़ाफ़े के घर से
यूँ आग का निकलना

कीमत

कीमत देता रहा
तुजुर्बे खरीदता रहा,
कंगाल हो यूँ
मैं अमीर हो गया

ताप

चुन चुन कर
शिद्दत से
इस कदर
परोस तो रहे हो
वक्त की आग में
हसरतों की लकड़ियाँ,
साँसों से
हवा दे रहे हो,
जब आएगा ताप
तौबा कर सकोगे?

मर्ज़ी

क्या पूछते हो
मर्ज़ी
मेरी मैं की,
कुरेदो उसकी रज़ा
जिसकी हाँ
में मैं हूँ |

बे इतबरी

इतनी भी
क्या बे इतबारी
कि
निकाल लेते हो
हर रात
सूरज
की सर्च लाइट
देखनें
कि
तुम्हारी जमीन
का
किरायेदार
करता क्या है?

ताक़ीद

रिश्तों का दूध
हो जाता खट्टा
गर वक्त बावक्त
उबाल न हो,
जज़बातों की आँच
बुझ जाती
गर सीने में
तूफ़ान न हो

ग़ज़ल

कह डालो,कहते रहो हर गज़ल ए आरज़ू का मतला,
है अज़ीम ओ शान वो शायर, कुछ मकता सोच लेगा

Tuesday, February 11, 2014

कबूतर

मन के
खुले
धुले
धूप वाले
आँगन में
शोर न हो
सुकून हो,
निकल
आते हैं
विचारों के
कबूतर
कहाँ कहाँ से
अक्षरों का
दाना चुगनें

स्याही

कलम के मुहँ से
निकली है स्याही
विचारों का कहीं
स्राव हुआ है,
लगी है कोई
चोट ज़रूर
या पुराना ज़ख्म
कोई
हरा हुआ है,
कहने दो
बह जाने दो
लिखने दो
आराम मिले
मुहँ ढककर
फिर सोने दो
महफ़िल का
सामान मिले

पंछी

वक्त की
लम्बी
अन टूटी
नीचे लटकती
बेल से
तोड़ता रहा
खट्टे मीठे
अंगूर,
किशमिश बना
करता रहा जमा
परवाज़
के सफ़र
वो
नन्हा
कवि सा
पंछी

नींद

नींद
मौत की
मुखबिर
पहरेदार
यादगार
मददगार
कोशिश
किश्त
निशानी
मील का पत्थर
प्यारा
मीठा
संजीदा मज़ाक

उत्सव

बिन पैर
भागती
सफ़र में
ख़ुशी से नाचती
यहाँ से वहाँ
बेपरवाह
बिन कहे
बिन मतलब
बिन मक़सद
बिन आस
वो
बस में गिरी
पानी की
यतीम
बोतल

Monday, February 10, 2014

सलाम

धरती
घूमी
अपनी धुरी,
मैं अपनी
परिक्रमा
कर आया ।
उसकी बाकी
अभी
रात की सुबह,
मैं सुबह
सलाम
कर आया

वो

बड़ोग के
सुनसान
ऊँचे
उजाड़
पहाड़ पर
आधी रात
वो
दिखती है
वहाँ रहती है
सुनता था ।

उस रात
आधी रात
वहीँ से
गुज़रना था,
इसी का
डर था ।

वहाँ पहुँचा
वो आई
मैं डरा
भागनें से
पहले
रुका
हिम्मत कर
रुका रहा
उसे देखता ।

वो आई
और करीब
बिन देखे मुझे
मिली
अन्दर मेरे
किसी को
कुछ देर
बहुत देर,
उठी
निकली
उड़ गई
बिन देखे
पीछे
छोड़ मुझे
सन्नाटे सा
स्तब्ध ।

अब क्या करूँ?
डरूँ?
किससे?

डरा था जिससे?
वो तो गई!!!

पता नहीं
खुद
या बदल उसे
जो अंदर थी ।

आग

कौन
कहता है
पत्थरों को
टकराके ही
आग जलती है,
हमनें
लफ्ज़ों को
रगड़
जज़बातों के
जंगल जलाए हैं

धर्म संकट

"हे ईश्वर
अब क्या करूँ”
वो बोल पड़ा -
हक्का बक्का
चेहरा ज़र्द
मन स्तब्ध
पैर जड़ ।

"और”
उसने सोचा
"सोचना भी
जल्द पड़ेगा
क्योंकि
देव देख रहे हों
या न
लोग सारे
देख रहे हैं ।

कहाँ तो
देखा था
सबनें
मुझे
देव के आगे
इस कदर
नतमस्तक होते
पीढ़ा रोते
मिन्नत करते
गिड़ गिड़ाते
हाथ जोड़
करते प्रार्थना.....
और कहाँ
वो देख रहे हैं
बटुआ मैंने खोला रखा है
अंदर उसके देख रहा हूँ
सोच रहा हूँ
1000, 500, 100
के बीच
देव को चढ़ानें
छोटा नोट कहाँ है
.....नहीं है
....क्यों नहीं है??

Sunday, February 9, 2014

फिर

उतरनें दूँ
ये लहर
चाँद को
जानें दूँ ।

बादलों पर लिखी
हर बात
हवाओं को
मिटानें दूँ ।

समेटनें दूँ
सब तारे
रात को
सोनें दूँ।

फिर डूबूँ
इस सागर में
फिर कलम भरूँ ।

Saturday, February 8, 2014

जो कहना था

अब तो
अंदाज़ ए बयाँ पर
बात ठहरी
बात ने तो
कह दिया
जो कहना था

कीमत

हर बात
मचलती है
बनने को
अंदाज़ ए बयान,

अंदाज़ ए बयान से
पूछिए
कीमत
एक बात की

बात

बयान ए अंदाज़
बदल दिया,
वो बात कहाँ रही,
हो गयी वो ग़ज़ल
अब आह कहाँ रही

दवात

कलम की कूल में
सूख जाती
जब
हर स्याही
कुछ नहीं कहती
नहीं बहती,
उठाकर
ऊपर
डुबोता हूँ उसे
बस एक बार
दवात ए अर्श
और लिख लेता हूँ

अंदर

रहने दूँ
तुम्हें
पत्थर में,
सोचता हूँ
बाहर न निकालूँ,
लगे न चोट,
हो न दर्द
चलाऊँ जब औज़ार
तुम्हें तराशुं

Wednesday, February 5, 2014

मिलन

चुनांचे
रूह को
अँधेरे
और मुझे
उजाले में दिखे,
दोनों
पहले पहल
उम्र ए साहिल
उस शाम
आग के
उजाले में मिले

गर्मी

होता इल्म
होगी गर्मी
इस कदर भी
सफ़र ए उम्र,
लगाता
कुछ
दरख्त ए सोच
कुछ आब ए सब्र
साथ रखता

बरसात

कब
भीतर की
बरसात रुके
कुछ मन बदले
मैं अन्दर आऊँ,
कब तक बैठूँ
रूह बनकर
दरवाज़े पर
कब अन्दर आऊँ