अभी
सोई है
दिल्ली,
फुटपाथ पर,
सोने दो,
बामुश्किल
थी आई
नींद
कल रात,
अभी
सोने दो।
लोहे की
ज़ंजीरों से
जकड़े रहे
आपस में
पहियों से,
बंधुआ
वो रिक्शे सारे,
रात भर
फुटपाथ पर,
सुबह
चलायेंगे
इन्हें
वो
बंधुआ
सारे,
राजपथ पर।
कब
बनाओगे
दस
बीस
और
फ्लाई ओवर
ओवर ब्रिज
सबवे,
करे
देश
और
तरक्की,
सौ
हज़ार
और
की
रातों
को
छत,
नींद को
ज़मीन
मिले।
रेत के
कणों,
सागर की
बूंदों,
हवा के
झोंकों,
आग की
चिंगारियों
में
पहले ही
हमेशा से
लिखी थीं
वो सारी
कहानियाँ,
इन्सां
को
जैसे जैसे
समझ आईं
छापता
रहा।
कलम पर
इक
ज़ुल्म सा
ताउम्र
हम
करते रहे,
नहीं
पूछी
कभी
मर्ज़ी
उसकी,
बस
हाथ पकड़
अपनी ही
लिखते
रहे।
दुनिया
से
उलट
चल रहे हो
”शान”,
ये
क्या
बात है?
हो भी
वो
गलत
तो क्या,
गलती
में
उसकी
ही तो
राज़ है।
आज
इत्तेफ़ाकन
जन्नत की
देखी
तस्वीर
तो
गज़ब
इत्मिनान ओ करार
आया,
ख़ुदा तो
उसमें भी
न
दिखा,
मगर
एक आसमान
एक मेज़
एक किताब
एक जाम
पाया ।
एक
था अमीर फ़कीर ।
था घूमता
शहर भर
पागलों सा,
उठाए
काँधे पर
बड़ा सा
बोरा,
बाँटते
निकाल
एक एक
घड़ी
उसमे से,
हर
उस शख्स़ को
जो
दिखता था
करता
कुछ भी
अच्छा,
बिन कहे,
खुद ही।
देखा नहीं
शायद
उसने
अभी तक
आपको,
या
हो न
कहीं
बंधी
उसी की घड़ी
इस समय
कलाई
आपकी,
देखिये तो !!!
पूरब के
दरवाज़े पर
सूरज की
पहली
किरण
की
दस्तक
से भी
पहले
वो जो
मुहँ अँधेरे
बाहर
घर के
चहचहाई थी
कोई
चिड़िया,
क्या
उसे भी
रात भर
नींद
नहीं आई थी,
या थी
उसकी भी
वही
कहानी,
पते पर
उसके,
किसी की
कविता,
किसी के नाम,
सवेरे
की
पहली डाक
आई थी।
खुदा
तेरे इशारे
जीवन के
खूब थे
बहुत थे,
बस
ज़रा
मद्धम से थे,
था
मैं
बेशक
सुनता,
बस
मेरे
ख्यालों के
शोर
पुरज़ोर
बहुत थे ।
है
मेरे पास
मेरा
मोक्ष,
किया
पैदा
मैंने ही
खुद।
बस
इतनी
सी
"मैं"
मेरी
रहने दे
मेरे पास,
बाकि से
मोक्ष दे दे।
गुज़र जा
आँधी तूफ़ान
की तरह ।
कम है
बची
जो
हवा
तेरे दमों में,
यूँ चलके
मौज के
दरख़्त तो
हिला,
कहाँ कहाँ से
गुज़रा था
निशानी तो छोड़,
यादों के
कुछ
पत्ते
तो गिरा।
दिनों के
टापुओं
के बीच
रात का
दरिया
गहरा कितना...
डूब गए
कितनें
फ़िक्र
तैर
आनें की
फ़िराक में
इस ओर।
छोड़ो
मत देखो,
उधर,
अनदेखा करो
उसे।
वही होगी
वहाँ
पर्दे के पीछे
मेरी
बेसब्र
बे इतबार सी
मौत,
समझती है
भाग जाऊँगा
कहीं,
ले
उसकी
अमानत,
लौटाऊँगा
नहीं।
इसी तड़प
को
उसकी
देखनें में
आता जो
न
इतना लुत्फ़,
बाखुदा
देता लौटा
जो
देकर है
पगलाई सी।
पडोसी
के
मँहगे कुत्ते ने
मुझे
सामने वाली
सीढ़ियों से
गुज़रते देखा,
पहचाना
और
भोंकनें की
कोई
ज़रूरत
न समझी।
फिर
जब
उसे
नौकरी
और
निवाले की
शर्तें
याद आयीं,
चुपचाप
गर्दन घुमाई
और
मालिक के
कमरे की ओर
मुहँ कर
दो तीन बार
रिवायतन
भोंक
ड्यूटी
निभाई।
हर सुबह
करता हूँ
ख़ुद की
ताजपोशी,
अपनें ही हाथों
अपनें सर
ताज
रखता हूँ |
करता हूँ पूरी
ताजपोशी की
रसमें
उसी के दरबार,
उसी की वाणी से
मंत्रोच्चार करता हूँ,
होता है
सुकून का
खामोश
शंखनाद,
रग रग में
नवजीवन का
संचार करता हूँ |
परत
दर परत
समेटता
बाँधता
सजाता हूँ
सच का उजाला,
उसकी रज़ा में
ख़ुदमुख्तारी का
ऐलान करता हूँ,
जब दस्तार
पहनता हूँ|
उसके नूर
का कोहिनूर
है जड़ा,
कैसा
बेशकीमती
नसीब पहनता हूँ!
क्या दस्तार पहनता हूँ!
कस के
रखता हूँ
ज़हन में
कफ़न की हक़ीक़त,
कानों के बीच
फ़र्ज़ की
आज़ान रखता हूँ|
कभी कलम
कभी हाथों से
लेता हूँ
शमशीर का काम,
बना
उसके नाम को ढाल,
निश्चय को
हाथियों का
पैर करता हूँ,
जब निकलता हूँ
उठा के सर
दस्तार पहनता हूँ|
छोड़
ज़मीन के टुकड़ों
की सियासत
की रियासत,
ब्रह्माण्ड की
सोच का
विस्तार करता हूँ,
करनें
निकलता हूँ
फ़तेह,
ख़ुद को,
हर रोज़,
अच्छे निज़ाम का
इंतज़ाम करता हूँ,
ख़ास मालिक
का हूँ
आम आदमी,
उसी के
हुक्म से
साँसों की
हुँकार भरता हूँ,
जब
दस्तार पहनता हूँ |
याद है
तुम्हें
वो
लुहरी
जो
बचपन में
हमारे,
हिलाती थी
दुम
गली के
मोड़ पर
जब
लौटते थे
हम
स्कूल से
बस्ता उठा,
और
एक एक को
आगे आगे
घर छोड़
आती थी?
देर रात
मोहल्ले के
हर दरवाज़े
मार पंजे
करती थी
इंतज़ार
दस मिनट,
कोई डाल दे
रोटी
अगर हो
बची,
वही
लुहरी
जिसे
म्युनिसिपल वाले
एक दिन
दे गए थे
ज़हर,
हम सब
कितना रोए थे,
याद है
तुम्हें?
था उसका
एक
प्यारा सा
बच्चा भी,
जो
रोज़
रात
घुस आता था
बंद दरवाज़ों
के दरीचे से
भीतर
और मेज़ के नीचे
छुप जाता था|
आज,
शायद,
मिला,
उसी
बच्चे
के बच्चे
का बच्चा,
वो जो
था खड़ा,
गली के
मोड़ पर
हिलाता
दुम,
देख
मेरे बच्चे |
बंद
मुटठी से
आज फिर
छिटक ही
गए
आँगन में
दस बीस
दानें,
फिर
भर गया
पेट
पाँच दस
परिंदों का,
आज
फिर
वो सारे
घोंसलों में
विश्वास से
सोये
हाँ
लूट लेना
शहर
पहले
उजड़ने
तो दो,
अभी तो
है
सिर्फ़
अंदेशा
सैलाब का,
पहरे
पे
जो हैं
उन्हें
मरनें
तो दो।
खरीद
लेता
ज़रूर
आपसे
उन
मोर पंखों
में से
एक
अगर
दिलाते
यकीन
कि
खुद ही
दिए हैं
मोर नें
आपको
उतारकर।
कमा
रहा था
होकर
खर्च,
देह
के बटुये
में
रोज़
घट रहा था,
पहुँचा
मेरी
ज़िदों
की ताबीर
से लदे
ऊँटों का
कारवाँ
मेरी
दहलीज़,
रसीद
पर
दस्तखत को
मैं
कहाँ था!
कभी कभी
तो
नहीं
होता था
यकीन
कि
खुदा
था भी
या नहीं।
फिर
जब
जाना,
पढ़ा,
कि
ख़ुदा के
दो बेटों
नें
की थी
बगावत सी
कि
तीसरे किसी
को
क्योंकर
बनाया
उत्तराधिकारी,
यकीन
आ गया,
हर
शको शुबा
धुल गया।
किस किस
का चेहरा
बन के
रिझाते हो,
पहचाने
जाते हो
जब
अपनें ही
जमाल से,
फिर
क्यों
बेज़ा
मेरा चेहरा
मुझ ही को
दिखाते हो।
धरती पर
आ
घूमने का
जब
बड़ा दिल
करता है,
रूह
ढूँढ़
लेती है
कोई
अच्छा सा
धड़,
घूमनें
फिरनें
को लगा
फिर
दो, चार सी
टांगें,
एक चेहरा
पहचान
के लिए
उगा लेती है।
कौन सी
कविता
किसको
क्यों
पसंद आई,
रगें
तो
हज़ारों थी
ज़िन्दा,
किस्मत
की बात है,
कौन सी
बात
किसपे
आई!
बधाई
आपको
बहुत बहुत
शुभकामनाएं।
करें
तरक्की
भरपूर आप,
अच्छे वक्त को
आपके,
किसी की
नज़र न लगे,
तोड़े न आपको
कोई
हमारी तरह
भरी बसंत
अपनी शाख़ से,
चढ़ाये न
आपको
भेंट,
गुलदस्ता बना,
किसी और के
एक पल की
टेढ़ी
नज़र के लिए।
बधाई,
आपको
बहुत बहुत
शुभकामनाएं।
दो
पत्थरों का
चूल्हा,
चार लकड़ियों
की आग,
छे टुकड़ों की
भात पर,
आठ मुट्ठी
अनाज।
दस घंटे की
रात भर,
बारह गज की
चादर में,
चौदह बरस
बनवास।
दुनिया
तेरी
किसी
अदा
भंगिमा
हार
श्रंगार पर
अब
प्यार
नहीं आता,
क्या
कर लिया
है
तुमनें
खुद को,
क्या
कर
दिया है
मुझको !
रुको
ठहरो
खोलो ज़रा
दरवाज़ा
फिर से
क्षण भर,
निकल जानें दो
बाहर,
भीतर फंसी
वो चिड़िया
लिए
मुहँ में
दानें |
करते होंगे
इंतज़ार
घोंसले में
इसके बच्चे
वो चार
देख
फीका पड़ता
ढलता
पश्चिम का
आकाश
और
क्षितिज से
आती
उड़ती
तेज़ तेज़
बिना
दानों के ही
सही
उनकी
माँ |
जल्दी करो
खोलो
दरवाज़ा,
उड़ जाने दो
उसे,
सूरज के
बुझनें से
पहले
दिशाओं को
पहचान,
पाँच जानों में
जान
आनें दो |
मिलती हैं
गुज़रती हैं
कभी सामने
कभी
बगल से,
सड़क पर,
कभी
सीढ़ियाँ
उतरते चढ़ते,
कभी
टकराती,
छूती,
कभी
पकड़ बांह
ले जाती
खींच,
कहानियाँ
कदम
कदम पर।
किस किस को
भरूँ
पुतलियों में,
किस किस को
लिखूँ !
जिस्म
के बाहर
था
अकेलापन,
घूम फिर
फिर
आया हूँ
लौट
भीतर...
उतार
मजबूरी के
जूते
फर्ज़ के
मोज़े,
रख
होश के
नंगे पाँव,
सामने
हकीक़त
की
मेज़ पर,
बैठ
बेपरवाही के
सोफ़े पर,
पी रहा हूँ
खुली खिड़की
के गिलास में
सुकून की
ठण्डी हवा
घूँट घूँट।
भागी तो
बहुत
उसके पीछे
वो,
तेज़ तेज़
लगातार
दम बेदम,
और
पकड़ भी
लिया
उसे
उसने,
मगर
जी गई,
तब तक,
ज़िन्दगी,
जैसे
चाहती थी
जीना,
जितना...
आओ
पढूँ
तुम्हें
उपन्यास
की तरह,
छूऊँ
तुम्हें
आखों से,
पकडूँ हाथ,
पलटूं तुम्हारे
पन्ने,
पढूँ तुम्हें,
बिताऊं
कुछ
एकाकी
पल
साथ
तुम्हारे,
एक ही
प्याला
चाय
दोनों को
मंगवाऊँ मैं।
आज
सुनूँ
जानूँ
समझूँ
तुम्हारी कहानी
तुम्हीं से
बैठ सामनें,
मिली है
फ़ुर्सत,
फिर
मिलूँ तुम्हें।
जी लूँ
तुम्हारा
जीवन
आखिरी सफ़े तक
सारा
आज ही,
तुम्हारी
कहानी
आज
अपनी
बना लूँ मैं।
सरकार,
आया हूँ
आपके दरबार,
बचाओ
मेरी
सरकार।
करता हूँ
वन्दना,
जलाता हूँ
धूप
अगरबत्ती,
दो आशीर्वाद
मिलता रहे
मुझे
उनका
समर्थन
रहे सलामत
मेरी सरकार,
मेरे सरकार!
संघ की बात
हिन्दू की बात?
अकाली की बात
सिख की बात?
इमाम की बात
मुसल्मा की बात?
पंडित
ग्रंथी
मुल्ले की बात
बाद की बात?
गीता
ग्रंथ
कुरान की बात
कौन सी बात?!
तुमनें तो
जाना है चले,
फिर ईंटों का
इस घर की
क्या करना है?
–––
पति
की ईंटें
हैं
तुम्हारी ही तो,
अलग से
उनका
तुमनें
क्या करना है?
–––
बच्चे ही तुम्हारे
तुम्हारी हैं
ईंटें
और ईंटों का
भला क्या
तुमनें
करना है?
–––
है तो है
अब
तुम्हारे अर्श पर
छत,
फ़र्श पर
ईंटों का
बोलो
क्या करना है?
–––
मिट्टी है
दे तो दी
सारी की सारी,
अब
ईंटों में
तुमनें
ख़ुद को
क्योंकर
चुनना है?
कुर्ते सा
ज़हन
अच्छा
लगता है,
कुछ
चिपकता है
कफ़न सा,
कुछ
दूरी
ख़ुदा सी
रखता है।
रखता है
सम्भाल
जेब के नीचे
धड़कता
एक दिल,
बगलों
की गहराइयों में
कागज़ों
के पुर्जे,
एक कलम
रखता है।
खुली
आस्तीनों
में रखता है
सैकड़ों
कहानियाँ,
गले के
काजों में
टाँग
कवितायेँ
हज़ार
रखता है,
कुर्ते सा
ज़हन
अच्छा
लगता है।
अभी है
व्यापार का
सीज़न,
आऊँगा कभी,
जाऊँगा घूमनें,
करूँगा
दिल की,
एक दिन
किसी दिन...
चाहता हूँ
खाना
पीना
पाना
पहनना
जीना
देखना...
ये सब
वो सब...
चाहें ये
करूँगा पूरी
ज़रूर
एक दिन...
ऑफ़ सीज़न में...
जब
हो जाऊँगा
ऑफ़ ।
चलो
आओ
मिलो सब
शहर की
चौपाल पर
होकर
तैयार
ढूँढ
निकाल
पहन
अपना अपना
सर्वश्रेष्ठ
पसंदीदा
चुनिन्दा
चेहरा।
हाथी से
हो।
सुबह सुबह,
कर
स्नान,
फिर पूजा,
स्वच्छ
तन के
मन पर
उंडेल
लेते हो
आँखों की
सूँड से
समाचारों
घटनाओं
विज्ञापनों
समस्याओं
की
धूल।
सुबह
आते हो,
करके
सलाम
करते हो
इल्तेजा
कि
"झोली भरनें दो"
शाम को
करके
सिजदा
माँगते हो
माफ़ी,
झोली
जैसे कैसे
भर ही
लेनें से
तौबा
करते हो।
खाकर
बार आखिरी
कसम
धुल जानें का
स्वाँग
रचते हो।
कारोबारी,
मुझसे क्यों
व्यापार करते हो।
लोहे के
दस हाथों से
किनारे को
पक्का
पकड़,
लंगर डाले,
डोंगी का
किनारे से
आ टकराती
लहरों के थपेड़ों से
डोलना
नृत्य नहीं
ख़ुशी का,
छटपटाहट है
मुक्ति की।
लहरों के
बुलावे पर
बीच समन्दर
बिन बंधन
तूफ़ानों में
छूटने
भटक गुमनें
की है
पुरज़ोर कोशिश,
आनंद में
डूब तरने
की
तमन्ना ।
था पहुँचा
अब्दाली
जब
लेकर
हज़ार तीस
घोड़ों पर
लड़ाके,
करनें
फ़तेह
दुनिया के बाद
हरिमंदिर,
देख द्वार
के अन्दर
का
पहला मंज़र
था हुआ
हैरान
बे इन्तेहा,
पाकर
तैयार
मिटनें को
नूर से रौशन
सच्चाई के
वो
तीस शेर।
आया है
जो
आज फिर
वही शाह
चलकर
पैदल
निवाने सर,
लौटाने
वही दुनिया
उसी मन्दिर,
देख
द्वार के
अंदर का
बदला मंज़र
है
हैरान
बे इन्तेहा
फिर,
है
तड़पता
देखनें को
उसी नूर
से रौशन
फिर
कहीं
वही
शेर।
आँखें तो
होंगी
उसी के
पास,
लेकर
गया
है
साथ ही
यहीं
कहीं...
यहाँ तो
हैं
रखे
मेज़ पर
पीछे
बस
विचारों में
डूबे
एकाग्र
चुप
भीड़ में अकेले,
लिए
अकेलेपन की भीड़
उसकी
ज़हन के
चश्में ।
गुरु जी
कहाँ हो?
बैठे हो
सामनें
ऊपर
तख़्त पर,
या हो
बहते
कीर्तनियों
के संगीत में!
झूमते हो
संगत के
आनंद में,
उड़ते हो
कढ़ाह प्रसाद
की
सुगंध बन,
या
महकते हो
अगरबत्ती की
लहरों में...
जगमग
जगते हो
दीयों की लड़ी में
या
बिछे हो
कालीन बन
धरती पे
आकाश से...
अपनें ही
घर द्वार
हो
सोते
नन्हा बालक बन
माँ की गोद,
या
भागते हो
इधर उधर
बन
उछलती
कूदती
वो
नन्हीं
बच्ची!
कहाँ हो,
आया हूँ मिलनें
आपको
आपके
द्वार ।
घड़ियाल सा
रेंगता
चलता
बढ़ता
सत्ता का
स्थूल
तन्त्र,
बढ़ाता
बारी बारी,
कभी
वामपंथी
कभी
लामपंथी
पाँव,
छिपाता
भारी
पूँछ की
बेसब्र
हरकतों में
उमड़ते
इरादे,
मूँदे
आँखें,
बहा
कुछ
घड़ियाली
आँसू।
मिटा दूँ?
धो दूँ,
रगड़ कर
बाएँ हाथ
की
सीधी
उंगली
की स्याही?
बन गई
सरकार?
सज गई
सत्ता?
हो गया
पूरा
मेरे
बायें
हाथ
का खेल?
सपनों के
तकिये पर,
नींद के
बिस्तर में
बदल जाता
हर रात
बीते दिन की
सिलवटों भरी
ज़हन की
चादर
कौन?
ओढ़ा जाता
सांत्वना की
रजाई,
टाँग
भविष्य के
माथे
सुकून का
भीगा
बोसा ।
वो
सामनें
सड़क पर
किसके
एक पैर की
चप्पल
औंधी
पड़ी है?
कौन
गिरा है
रास्ते में,
मंज़िल से पहले,
बिना ठोकर,
किसके
पैरों के
नीचे से
ज़मीन
गई है!
ढूँढो
वो
खुशनसीब,
लौटाओ
उसे
उसकी
किस्मत
का
खोया जूता,
उसके
पैरों
अभी
है बाक़ी
उसका
सफ़र,
अभी
मंज़िल को
उसकी
कुछ
उम्र
पड़ी है !
दुकानदार
अंकल,
मेकप
का
सामान
ज़रा
घटिया
देना,
अव्वल तो
कोई रंग
चढ़े न,
चेहरा
असली
मेरा
ढके न,
दबा दे
फिर भी
जो
मेरा अक्स
कहीं
परतों में
ये,
पलक
के
फ़लक की
एक बारिश
भी
टिके न,
फ़र्ज़ के
पसीनें में
घुल जाए,
मिट्टी
की माँज में
कुछ
बचे न |
लौट
आया हूँ
बस
मिल कर,
बिन किए
शुक्रिया,
बिन
माँगे
कुछ भी,
बिन
झुके,
बिन
किए
सलाम,
बस
जलाकर
प्यार
की
दो बूँदों
से
सौ
दीये।
क्या था
उसका
जो
मेरा नहीं था,
क्या है
अभी
जो
सही नहीं है !
अब
बता,
ये
क्या है?
है
अभी भी
कोई
ज़रूरत
बे इन्तेहा,
मारनें की
हाथ पाँव?
फैलानें की
पानें को कुछ?
या
जोड़नें की
इन्हें
करनें को
शुक्रिया ?
चल
उठ,
दूर ही से
हिला दे
प्यार से,
खोल
हर
भिंची
मुठ्ठी ।
जब
दी थी
तब तो
इतनें बरस
जनाब नें
सुध भी
नहीं ली,
न जी ही
ज़िंदगी,
अब
क्या गरज़
किस सूरत
है
तवक्को
कि
हो लम्बी
कुछ और,
मिले
फिर
दोबारा भी।
ये नहीं
वो नहीं,
ये भी नहीं
वो भी नहीं
सुहाता
लुभाता
बहलाता...
अब तो
बस
है
भाता
समझाता
दिल को
ये ही
वो ही,
ये भी
वो भी ।
जीवन के
पर्दे पर
आज
कौन सा
चलचित्र
दिखा
रहे हो,
नायक तो
मैं हूँ
जानता हूँ,
कौन सी
कहानी
चला रहे हो ?
रात के
स्याह
पर्दे को
सुबह सुबह
कर दिया है
रौशन,
अब इसमें
कौन सा
मंज़र
दिखा
रहे हो !
मूँद
लोगी
जब
सपनों में
आँखें,
सपनें में भी
दफ़नाऊँगा
कैसे?
आलिंगन में
ही
तुम्हारे
आती है
नींद,
जागते
तुम्हें
जगाऊँगा
कैसे?
पुकारो
तो ज़रा
बाहर ही से
गुस्से में,
तिरस्कार से,
कहो तो
कोई
बात
भारी,
छेड़ो
दूर ही से भले
कोई
बात
पुरानी,
दबाओ
कोई
दुखती रग,
कुरेदो
कोई
भरा सा
खामोश
ज़ख्म,
दिलाओ
फिर याद
कोई याद
पुरानी,
उकसाओ
कुछ तो
बाहर ही से
सलाखों के,
देखूँ
तो ज़रा,
पिंजरे
के भीतर
की
कोठरी
में
है भी
वो
अभी
या
नहीं रहा ।
जो
है
नदी
की ज़िद,
कर
लेने दो
उसे,
बहने
मुड़ने
रुकने
चलने दो
वहीं से
वैसे ही
चाहे वो
जैसे...
न जाने
सागर से
उठ
बादलों
की कैद से
तलहटी में
दोबारा
फिर
यहाँ
कब
बरसे!
लेटा सा
बैठा हूँ
आरामदेह
कुर्सी पर
घर की
बालकोनी में
बंद कर
आँखें,
देखता
कानों से,
गुज़रती
आवाज़ों
के बिम्ब ।
क्या
सुकून भरा
मंज़र है,
कितनी
ख़ामोशी है ।
मान लो
आज
आज नहीं
बीस साल
बाद है,
हम सब
हैं
जा चुके
दूर दूर
अलग दिशा,
और
आज हैं
कर रहे
याद
बीस साल
पहले
का आज।
आओ
बैठें
साथ साथ
और करीब,
करें
ढेर सी
बातें
दिल खोल,
बितायें
जागें
साथ साथ
शाम
सारी
देर रात,
कहें
अलविदा
आज को
कल
सुबह ।
मज़मून
कोरा
नहीं हूँ मैं ।
अकेला
नहीं हूँ मैं ।
रगों की वादियों
उमड़ते
लाल दरिया
में हैं
बहती
हस्ताक्षरों
की
हज़ारों कश्तियाँ
पूर्वजों की
मेरे ।
ऊपर
जो हो
तिरछी टोपी
कसी पेटी
खाकी वर्दी,
तो
नीचे
सख्त़ जूतों
को
चमकाने
पॉलिश करने
के पैसे
मोची
लेता
कैसे?
सत्ता
के पैरों
पर हाथ लगा
बोहनी
की उसनें |
ठहर
यहीं
तू
ज़िंदगी,
आऊँगा
तुम्हें
लेने
पाने
मिलने
जीने,
मरने से
पहले।
अभी
ज़रा
ठहर,
पहले
भटक लूँ
ढूँढने
तुम्हें
हिरन सा
हर दिशा
उठाए
कोतुहल की
नाभी ।
गर
मेरी तरह
हर
ज़र्रा
भी है
जागता
सोचता
देखता
सब कुछ,
और
ख़ुद को भी,
ये
किसनें,
कहाँ से
लाकर
रख छोड़ी है
दुनिया
सारी
कहाँ
क्यों
भरोसे
किसके?
हो न हो
यकीनन
बैठा
होगा
कहीं
यहीं
आसपास
बजाता बाँसुरी,
अपनीं
हम भेड़ों
को
छोड़ चरता
बेपरवाह...
पसीनें
की
कमाई
से भी
क्यों
उठती है
चोरी
की सी
गंध?
ये
किसके
डर का
पसीना है,
किसके
पसीनें का
डर !