Monday, June 30, 2014

चुभन

सीने में
चुभते
से
को
निकाला
तो
तेरी याद
का
तीर
निकला,

दिल का
छेद
किए था
बंद,
खूं के
रिसनें को
रोके था।

हाथ

बाज़ार में
मदद को
हाथ
बहुत थे
पर
महँगे थे।

नुक्कड़ पर
मिला
एक
मुफ़्त
का
हाथ,
मुझे
खरीद
गया।

चटाई

चटाई
की जगह
आज
जो
बिछा दी
नीचे
सुर्ख़ियों से
लबरेज़
अख़बार,
सुकून से
परिवार
के साथ
बैठ
एक वक्त के
भोजन
का
ज़ायका
जाता
रहा ।

भुट्टे

चल
उठा
अपनें
भुट्टे, कोयले,
ये
जगह नहीं
लगाने की
दुकान -
मैंने
कहा।

वो डरा,
सकुचाया
और
काँपती
आवाज़ में
बड़बड़ाया -
बाबूजी,
है तो
नहीं
ये
कार पार्किंग
की भी
जगह ।

अवाक
मैं,
झन्नाया,
ज़ख़्मी सा,
तपाक
बरसा -
जा
मैं
और
मुझ जैसे
सारे,
नहीं खरीदते
तेरे
भुट्टे,
आज से,

ठीक है,
साब -
बेपरवाही से
वो
बोला -
नहीं
उठाते
मैं
और
मेरे जैसे भी,
आज से
तुम जैसों की
सत्ता।

Sunday, June 29, 2014

पैकेज

पैकेज
पैकेज
करते
हो गए
पैक,
ऊपर
चढ़ते
चढ़ते
ज़मीन
में
पहुँच
गए।

हाथ

दो
हाथों
से
दुनिया
समेटनी
है
नामुमकिन,
पाते ही
ये
सबक,
जो
थी भी
की
इकट्ठी,
दोनों
हाथों से
लुटा दी।

महफ़िल

चल
कह,
लिख,
कुछ,
महफ़िल की
रात है,

फिर
कभी
बता देना
दिल ओ रूह
की हालत,
आपस की
बात है।

हालात

हालातों
से
बनते
बदलते
हैं
हालात,
सब
ठीक हो
तो
कुछ
ठीक
नहीं रहता।

शुक्रिया

कैसे
करूँ
शुक्रिया
हर
चीज़ का
जो
तुझ से
मिली है।

अभी तो
हूँ
मगनून
अपनें
ही
वजूद का।

दुआ

चलिए
आपकी
मदद
कर दूँ,
की हो
शायद
आपने भी
दुआ,
कुबूलियत का
भरम
रख लूँ।

Saturday, June 28, 2014

बातें

मिलता हूँ
खुद से
तो
बिन बोले
बातें
हज़ार
करता हूँ।

बात बात
पे
कहता हूँ
दिल की
बात,
फिर
ख़ामोशी की
कसमें
तमाम
देता हूँ।

वापसी

मझधार में
ख़ुद को
छोड़ता
कैसे,
किनारे
लगाकर
लौट
गया।

आवाज़ें

घूमने
झूलने
वाली
ढीली
कुर्सी पर
बैठ
जब
घूमता
झूलता हूँ,
आती हैं
घूमते झूलते
भूत की
आवाज़ें
कहीं
नीचे से।

घड़ी

चौबीसों
घंटे,
बना
मुद्राएँ
भिन्न भिन्न,
बाज़ुओं से
दोनों,
कहती
हो
क्या?

बदलता
गुज़रता
वक्त
मिटाती हो
हाथों से
करती
कालजयी
नृत्य,

बदलती हो
घड़ी घड़ी,
पकड़ हाथ
समझाती हो
क्या?

Friday, June 27, 2014

रियासत

हज़ारों
सिपाहियों
से
खड़े हैं

रास्ते में
मेरे,

तन के
सीधे,
मुस्तैद,
ऊँचे,
चौड़े,

तलवारों
सी
शाखाओं वाले

ये पेड़!

कमाल
तेरी
हिफ़ाज़त,

गज़ब
तेरा
इस्तकबाल,

बुलंद
तेरा
परचम ।

घासनी

नैहर
के करीब
ऐसी ही
सड़क थी,
ऐसी ही
घासनी,
ऐसे ही
चराती थी
मैं
पूरी पूरी
दोपहर,
बाबुल
की गायें,
जैसे
हूँ
चराती
साठ साल
बाद भी
बेटे की,
मरनें के बाद
पति के।

घड़ी

जीवन
के
घटनाचक्र
से
मिला रख
न पाई
कदम
दिल की
घड़ी,

वहीँ है
रुकी
ज़िद में,
जो वक्त
कब का
गुज़र
चुका।

बाग़

आपके
शहर
के बागों
और
उनमें
गाती
कोयलों
का
कायल
होता,
गर

गूँजती
रह रह कर
कानों में
काँव काँव,
कूड़े
वाली
घाटी के
कौवों की।

भयभीत

किस
बात से हैं
भयभीत
जो
जनाब
रूखे
बहुत हैं,

अपनी
ही
चिंगारियों
से
झुलस
जायेंगे,
इस
शहर में
हवाएँ
बहुत हैं।

Thursday, June 26, 2014

क्यों

“जानता
है
तो
फिर
पूछता
क्यों है?” -
मेरे
दिल ने
मुझसे
कहा ।

“तू
भी तो
जानता है,
फिर
तू
भी
क्यों
पूछता है" -
मैंने
कहा ।

ज़रा ज़रा

बच
बच
के
चलते
रहे,

ज़रा
ज़रा
सा
रहते
रहे।

आदत

स्वर्ग की
पड़ गई
आदत,
नर्क
हो
गया,


गई
मोक्ष
की
फ़रियाद
फिर
ज़बां पर,
कमाल
हो
गया।

आरज़ू

तेरे
शहर
में
आकर
भी
तुझसे
मिलनें
की
आरज़ू
नहीं,
लगता है
तू
ख़ुदा
है वही,
मेरा
अक्स
नहीं।

आज़ादी

सब्ज़ी
वाले का
व्यापार
चल निकला,
सब्ज़ी
वाला
आज़ाद
हो गया।

लगाया
उसने
आज़ादी
में
मन
इतना,
टमाटर प्याज
भिन्डी तोरी
में
गिरफ़्तार
हो गया।

Wednesday, June 25, 2014

सोच

भय
से
झुकाया
या प्रेम से,
सर
अपना,
आपके
आगे,
सोचने दो।

दिल से
लगाया
आपने
गले
मुझे,
या दीमाग से,
सोचने दो।

याद

लपेटते थे
कैसे
आप
मफ़लर
अपनें
गले से,
उड़ता था
हवाओं में,

करते हैं
आज भी
याद
आपको
मफ़लर
और
हवायें,
आप
और
आपका
गला
कहाँ हैं?

Tuesday, June 24, 2014

जेब

रख दीं
हैं
तरह तरह
की
कलमें
तेरे
सीने
की जेब में,
करे
किसी से
तो
तेरा
जी
लिखनें का,
जो
तेरे
दिल नें
ख़ुद से
कहा है।

पिता

कह दूँ
पिता को
बच्चा,
बच्चे को
पिता,
जानता हूँ
उतारा है
किसने
किसको
पहले
पाताल से
बचाकर
आसमां में,
आया है
कौन
बाद में
पीछे,
जागेगा
कौन
बाद तक
इंतज़ार में
अपनें
पिता के।

आवाज़

जब
बनाकर
रंग बिरंगी
तितली,
भूरी
मिट्टी
हमसे
बोलती है,
दिखते
हैं
हमें
रंग,
आवाज़ नहीं
सुनती है।

Monday, June 23, 2014

कोई भी

सब
हैं
एक
तो
कोई भी
चलेगा,
सबमें
है
एक,
वही
तो
मिलेगा।

रोटी
है
पकानी,
सीधे
तवे
या उल्टे,
पेट की
बात है,
वही तो
भरेगा।

मुहूर्त

दी है
पंडितजी नें
हिदायत
सख्त़
कि
निकलवा लूँ
उनसे
मुहूर्त
शुभ ,
करनें
से
पहले
कोई भी
काम
अशुभ ।

अनदेखा कर
उनकी
तारीख,
करनें हूँ
चला,
काम,
बिन
मुहूर्त
बना
अशुभ
को
शुभ ।

चूक

कहीं
तो
हुई है
पिछली
पीढ़ी
से
चूक,
जो है
आमादा
ये पीढ़ी
करने
अगली
को
बर्बाद।

Sunday, June 22, 2014

क्यों

क्यों
महज़
हर्फ़ों
को उठाने
को
तुम्हें काटूँ,

तेरी
डालियों के
पंछियों से
सुन लूँगा,
पत्तियों
से
पढ़ लूँगा,

फूलों की
महक से
साँसें,
तेरे फलों से
दामन
भर लूँगा।

आराम

तड़पते
शेरों
से
जलते
सीने
में
आराम
बहुत था,

सुकून
में
पढ़ा
तो
ज़ख्म
छिल गए।

काम

ज्यों
कटे
पेड़ों ने
किताबों के
सफ़े बन
फिर
साँस ली,

है
इत्मिनान
लगायेगा
वो
किसी काम
मुझे भी।

ज़िद

उनकी
आँखों में
अब

तीर है

नशा
कोई,


हमें
अब
मरनें
की ज़िद,

उन्हें
साक़ी
बनने
का शौक़।

इच्छा

बड़ी
इच्छा
है
कि
जलूँ,

लगे
भीषण
आग,
अंदर तक,
धू धू।

हो जाये
राख़
वो
सब
जो है
व्यर्थ
भारी...

बड़ी
इच्छा
है,
हो
जाऊँ
हल्का
खाली।

ख़ुशी

खुश हूँ
कितना
क्या कहूँ
जो
है
दुनिया
अचम्भित
"वाह"
की
नज़रों से,
देख
मझे
बंधा
ब्राण्डेड
ज़ंजीरों
में।

बोझ

तुमसे
तो
अच्छी
हैं
चिड़ियाँ
चींटियाँ,
हैं
धरती पर
बोझ
बहुत
कम,
सारी
खुश हैं ।

भिखारी

भर
के
लाये
पोटलियाँ
दुआओं की
गर्म मैदानों
से
ठण्डे
पहाड़ों पर
खानाबदोश,

सब
लुटा,
अशर्फियाँ
समेट
लौट गये।

जो थे
यहीं के,
दुआओं
से थे
अनजान,
ठगे से
रह गए।

सलाम

जबसे
तुम्हारे
शिवाला
बन
गए
बाज़ार,
सलाम
तुम्हें
जो
बना लिए
तुमनें
बाज़ार ही
शिवाला,
इबादत
रखी
जारी,
विश्वास
रखा
जिंदा,
नहीं
दिया
मरने,
चाहे
जिसमें।

बोहनी

निकाल
बटुये से
जो
तपाक
थमाया था
उसे
सुबह सवेरे,

दोनों आँखों
से
चूम,
धूप
के नन्हें
बादल
से छू,
ईश्वर
से लगा,
बोहनी
बनाया
उसनें।

सुंदर

हाँ
बहुत
हो सुन्दर,
पर
अब
बस करो,
हो
रही है
खिंची
फूलों
की डालियों
को
बहुत दर्द,
खिंचवाओ
जल्द
तस्वीर,
उन्हें
छोड़ दो।

Friday, June 20, 2014

सारा शहर

पूरे
शहर
के पुरुष
नहीं
कर पाये
स्त्री
आज भी
अपनी
पतलून
कमीज़।

आज फिर
हैं
बिजली
की आँखें
मुंदी,
सारा शहर
सिलवटों
में है।

नींव

अच्छी अच्छी
खुशनुमा सी
कर रहे हो
खुद की
नुमाइश,

फिर
किसी
रिश्ते
की
नींव
में
आदतन
कुछ
दबा
रहे हो।

आइस क्रीम

खा लो
अंकल
आइस क्रीम,
छुपाते
क्यों हो,

ये
ज़िन्दगी
है
इस पल की,
झिझको मत
खा लो
पिघल
जाएगी।

बाहर भीतर

चल
रही थी
जब
तन से
बाहर
हालातों की
लू,
सब कुछ
था
झुलस रहा,
मैं
रहा
बैठा
चुपचाप
भीतर
सुकून से,
बढ़ा
बेपरवाही
के
मोटे
पर्दे,
डाल
होश की
खसखस पर
सब्र का
पानी,
चला
पीछे
आनंद की
हवा,
पीते
संतोष की
शरबत,
पढ़ता
तजुर्बे
की क़िताब।

Thursday, June 19, 2014

रास्ते

नहीं
रुकोगे
तो
पहुँच ही
जाओगे,

मंज़िलों
तक
रास्ते
हैं बन चुके,
हैं खाली,
इंतज़ार में हैं।

कब तक

कह दे
लिख दे
जो
आया है
दिल में,
ज़बां पर,

न जाने
कब तक
धड़के,
कब तक
लरज़े।

मुलाक़ात

किसी
मुलाक़ात
को है
इंतज़ार
तेरे
भटकनें का।

किसी
से
बिछड़ के
कोई
मिलनें को
तुम्हें
है
बेक़रार।

कौन

कोई
गुज़रता
है,
कोई
देखता
है।

कौन
गुज़रता
है?
कौन
देखता
है?

पंख

माज़ी
की
तितली
के
पंख
फड़फड़ाने
से
उठा है
आज
का
तूफ़ान,

आज
के
तूफ़ान
से
कहीं
मुड़ेगा
किसी
तितली
का
पंख
कभी
ज़रूर।

मनोरंजन

करता
भी कैसे
मनोरंजन
आपका
इससे
कुछ और
ज़्यादा
कविता से
अपनी?

उफ़्फ़
तो
थी
ज़बां पर
आपकी,
छाला
न था।

Wednesday, June 18, 2014

झील

बेटी
झील से
बाहर
निकलो,
तुम्हें
डाँटना है -
बेहोश होने
से पहले
रोते रोते
पिता ने
कहा।

झील से
आवाज़ आई -
पापा,
आ जाऊँगी
बाहर,
पर
डाँटना
मत।

Tuesday, June 17, 2014

भोला

माना
है सर्दी
बाहर
बहुत
पर
ये क्या?
सारा
शरीर
है
रजाई में,
चेहरे वाला
मुहँ
बाहर क्यों?
है नहीं,
क्या,
वो
बेचारा
भोला,
सदस्य
परिवार का?
हर साँस
है जिसकी
तुम्हारी
खातिर,
बाँध
रखा है
फिर,
उसे,
रजाई के
घर से
बाहर,
कुत्ते की
तरह
ठिठुरनें
भौंकनें को
क्यों?

बचाव

कुबड़ापन
मेरा
निकालने
को थी
इंतज़ार में
उसकी
ठोकर,
हाय
ताउम्र
बचाता रहा
रीढ़
अपनी
ख़ुदा की
टाँग से।

रिवाइंड

रोको
यहीं,
फ़ौरन,
करो
रिवाइंड,
सारी की सारी,
किन्नौर में से
होकर
कहाँ से कहाँ
जाती,
बाइक राइड
की
वीडियो फ़िल्म,
पहनों
हेलमेट
और
चलाओ
फिर से
उसे,
करो
यकीनी
फ़िल्म का
सुखद अंत ।

Monday, June 16, 2014

याद

आया हूँ
याद
पुरज़ोर
किस कदर
मिट्टी को
मैं,

आई है
मिलनें
भूख
मिटानें
के बहाने
मुहँ में
फल
बनके ।

अकेला

आईना
महल में
खड़ा हूँ
अकेला
नहीं हूँ
मैं।

इन्हीं में
कहीं
यहीं
हूँ मैं,
मैं
नहीं हूँ
मैं ।

मेहमान

जिन
विचारों को
बार कई
बे इज्ज़त कर
दिल के
दरवाज़े से
निकाला
हमनें,

उन्हीं को
बुला
बैठाये हैं
आप
पलकों की बाम
बा इज्ज़त
मेहमान
करके!

सरहदें

अपनी
सरहदों
तक
पहुँच
जाते हो
हर
दूसरे
रोज़,
किसी रोज़
जो
सरहदें
खुद आ
गुज़र
गईं
आपसे
तो कीजिएगा
क्या?

फूल

उस
खम्बे
को भी
आज
छत को
जर्जर
दीवारों
के सहारे
कुछ वक्त
को छोड़,
हाथ नीचे कर
बाहर
आँगन में आ
टेंशन में
कश
लगाते देखा।

क्रान्ति
के विचारों
की
शाखाओं पर
फूलों को
खिलते
देखा।

Sunday, June 15, 2014

अशर्फ़ियाँ

चढ़ाऊँगा
ज़रूर
तुम्हारी दी
अशरफ़ियाँ
तुम्हें ही,
पर
तम्हारे
छोटे
मन्दिर
से
बहर वाले
बहुत बड़े
खुले
मन्दिर में ।

सभ्यता

ऊँचे
पहाड़ों से
उतर
मंझले
पहाड़ों
मैदानों को
उतरा
मैं
ज्यों ज्यों,

सभ्यता
की
खुश्क हवा
और
सघन
होती गई...

याद

सामने
रखी
पूरी
रोटी
में से
आधी ही
खाने को
जब
दिल किया,
सुबह सुबह
आगे पीछे
दुम हिलाते
मॉर्निंग वाक वाले
उस
दोस्त की
फिर
याद
आई।

बोर्ड

अब तो
बदल दो,
कर दो
पेंट
दोबारा,
डाबू
और
मशनू
की
जनसंख्या
के बोर्ड।

मदन
के दादाजी
की है
बर्सी
अगले हफ़्ते,
सतीश
की बहु,
जो
मशनू
से
डाबू
थी ब्याही,
को
बच्चा हुआ है ।

चट्टान

पापा
अभी भी है
वहीँ
वो चट्टान
जहाँ से
आपकी
जीप
गिरी थी
किन्नौर में,

खड़ा हूँ
पूछता
उससे
आपका
पता,
भरी
दोपहर
कहती है
अंधेरा है बहुत,
हाँ
मगर
गई है
नीचे
यहीं से
कोई
चीज़
अभी अभी ।

Saturday, June 14, 2014

बाहर

उतारो
छोड़ो
रखो
बाहर ही
मन्दिर से
जूते
बेल्ट
बटुआ,
समेत
मृत ज़मीर
का
खुद का
चमड़ा ।

जानवर

ला
रहा
हूँ
अपनें
अंदर का
जानवर
बाँध
भीतर
आपके
मन्दिर के
प्रांगण,
करो
कबूल
बलि
माँ।

झोला

पहाड़ो
झरनों
वादियों
आओ
भर लूँ
तुम्हें
यादों की तरह
कैमरे
के
झोले में,
टाँगूं
वक्त की
खूँटी पर,
सजाऊँ
माज़ी
की दीवार ।

बिसरा

ढाबे वाले
से
मैंने
पूछ ही
लिया,
ये बच्चा
खेलता खाता
है यहाँ
और
वो
धोता है
जूठे बर्तन
वहाँ,
हो
न हो
ये है
तुम्हारा
और
वो
अपनें
बिसरे
ख़ुदा का।

पार्किंग

सुबह सुबह
मन्दिर
की
पार्किंग
को
देख,
इस विचार
से
पुजारी जी
मुस्कुराये,
कि
रात भर
कौन कौन
पहुँचा है
माथा
टेकनें -
चार
इन्नोवा,
तीन
स्कॉर्पियो,
दो
लैंड क्रूज़र,
एक
भरी
बस ।

Friday, June 13, 2014

डीज़ल

अंकल
कहाँ है
आपका
शहर,
आपके
बच्चे,
आपकी
पत्नी,
माँ बाप
आपके?

कहाँ से
हो
आप
आये
डीज़ल का
ये
टैंकर लेके?

आओ
छोड़ दूँ
आपको
आपके
घर
अपनी
खिलोने की
कार में
यही
डीज़ल भरके।

इंसानों की तरह

न उछल
इंसानों की
तरह
दूरभाष
की तारों
पर,
इन्हीं में
हैं
कहीं
बिजली
की तारें,
चिपक जाएगा,

जा खेल
उछल कूद
पेड़ों की
डालों पर
बंदरों
की तरह,
मीठे फल
पाएगा।

Thursday, June 12, 2014

कुछ और

कुछ भी
तो
नहीं था
किया
गलत,
सब कुछ
गलत हुआ,

या तेरा
निज़ाम
कुछ
और था
या मेरा
सलीका
कुछ
और।

बड़ी बात

न होती
घड़ी
तो क्या
बड़ी
बात होती,
हर सुबह
ही तो
होती
सुबह,
शाम को
शाम
होती।

होता
वक्त ही
वक्त,
सुई काँटे
की न तलवार
लटकती,
घबराता
न दिल
हर गुज़रती
टिक टिक पर
उसी
सुबह की
वही
जानी पहचानी
शाम होती।

न होती
वक्त की
खबर
मगर
वक्त तो
होता,
इंतज़ार की
घड़ियाँ
न होती
तल्ख़,
कुछ
लुत्फ़ तो
होता।

ढूँढ़
लेते
दो चार
बड़ी
निशानियाँ
काम की
बात करते,
लम्हों की
कीमत
वसूलनें को
बेकार न
हरदम
तिजारत होती।

हथेलियों
में होता
मुस्तकबिल
का पता,
कलाई की
नब्ज़
न होती
बंधी,
आज़ाद
होती,

न होती
घड़ी
तो क्या
बड़ी
बात होती।

कवितायेँ

कवितायेँ
कितनी
सुंदर
दिखती हैं।

हों
किसी भी
शै में,
हसीन
लगती हैं।

कोई
आए,
देखे,
पहचाने,
खींचे
बाहर,
नहीं कोई
हसरत,

पढ़ पढ़
के
खुद को,
होती हैं
सराबोर,
ख़ुशी के
आँसुओं से
हवा के
सफ़े
भिगोती हैं।

सीली
हवाओं में
कवितायें
कितनी
सुन्दर
दिखती हैं!

गोली

टेलीफ़ोन
की
तारों
के बीच
यूँ लगा
चाँद
जैसे
दो
चॉपस्टिक्स
में
दबी
चाँदी की
कोई
मीठी
गोली।

फिर
सोचता हूँ
कहीं
हो ही न
चाँद
उसी की
चॉपस्टिक्स
में
उसी की
गोली।

सलाखें

छटपटाता
है,
हाथ जोड़
मार चीखें
करता है
इल्तेजा,
देता है
दुहाई,
वक्त...

कर दे
कोई
अब तो
उसे
रिहा,
बरसों
पुरानी
तस्वीरों
की
सलाखों से।

Wednesday, June 11, 2014

बस्तियाँ

चींटियों
की
मिट्टी की
बस्तियों
से हैं
तुम्हारे
ये शहर,
बस बड़े हैं।

उनकी
बस्तियों में
रहती हैं
इंसानों सी
चींटियाँ,
तुम्हारे
शहर
चींटियों से
इंसानों से
भरे पड़े हैं।

घोड़ा

चलो
फिर क्या
हुआ,

कर लेना
घुड़सवारी
अगले जनम

कहाँ
जायेगा,
मिल
जाएगा
यही
घोड़ा,
मिट्टी में
इसी
यहीं कहीं।

भूत

बस भी
करो,
अब खोदो
मिट्टी,
उतारो
नीचे
कंधे से,
दफ़ना भी दो
लाश
अपनें
भूत की,

नहाओ
खुलकर
झरनें में
आज के,

पहनों
भविष्य की
धुली कमीज़

निकलो
बाहर

दूर तक
ज़रा
घूम के
आओ।

ज़ेहमत

देता न
ज़ेहमत
आपको,
जाता
चला
ख़ुद ही,
चल के,
होने को
दफ़न,
गर
वक्त आखिरी
का इल्म होता।

निकला था
दावत ए जश्न के
बुलावे पर,
जब
इस्तकबाल को मेरे
मेज़बान ए जनाज़ा
निकला।

सारथि

सालों से
शवों को
शमशान
मुफ़्त
पहुँचा रहे
सर्वजीत,

कफ़न में
जेबों की
क्या दरकार
समझा रहे
सर्वजीत।

मीलों
चल के भी
घर से
पहले
लड़खड़ा गये
जो जो
बशर,
सारथि बन
घर आखिरी
पहुँचा रहे
सर्वजीत।

Tuesday, June 10, 2014

ज़रूरत

ज़ुबां
की
ज़रूरत
भी इतनी
कुछ
ख़ास
नहीं थी।

चेहरे से
जो
रह गया
आँखों ने
कह दिया।

साँसें

कवितायेँ
मेरी
सब
ले लोगे
वापिस
तो
क्या
करूँगा?

लूँगा
गहरी
साँसें
हवाओं से
फिर
पी
लूँगा।

काल

घड़ी के
पटे से
बाँधे हूँ
वक्त का
काल
कलाई की
हड्डियों
के पाये से।

खोलूँगा
तभी
जब
खुलूँगा।

Monday, June 9, 2014

ज़िन्दगी


मेरे बच्चे
तुझे
ज़िन्दगी सिखा दूँ,
बस
एक बार
चुपके से
मौत
दिखा दूँ।

तारा

वो
ऊपर
दूर
चाँद की बगल,
रात की
रौशन
गहरी
बैंगनी
सुरंग में
जो
नन्हा सा
इक
तारा है,

है जो भी
बैठा
उस तारे
के
शहर
की
गली में
ज़मीन पर,
देखता
सोचता
कि है क्या
कोई
बैठा
मेरे जैसा
यहाँ
बिन्दु सी
धरती पर
देखता
उसी को,
कह दो
उसे
कि
हाँ
मैं हूँ
मैं भी हूँ!!!

Sunday, June 8, 2014

खाली

मालरोड
के
कूड़ेदान
में
जूस के
सौ
दो सौ
पाउच,
सेहत
सभ्यता
व्यापार
ठंडक
से भरे,
यद्यपि
खाली।

रणभूमि

रणभूमि में
तलवारों के
टकराने की
आवाज़ से
याद आईं
आवाज़ें
रेस्तरां में
प्लेटों
चमचों
छुरी
काँटों के
टकराने की।

योद्धाओं
की ललकार,
हाथियों के
चिंघाड़ने,
घोड़ों की
हिनहिनाहट
से
आई
याद
रेस्तरां में
ललकारते
चिघाड़ते
हिनहिनाते
सामाजिक
जानवरों की।

Friday, June 6, 2014

गुबार

क्या पूछते हो
उम्र
इस गुबार की,
रेत
सदियों से है,
तपिश
क़यामत से।

अर्थ

शबरी
बनकर
दिनों के
बेर
जब
खिलाते हो,
हर रोज़
के निवाले
में
आता है
अर्थ का
स्वाद।

अहिल्या
समझकर
छूता है
जब
तुम्हारा
हर हाथ,
पत्थर होनें का
सवाल
आ जाता है
समझ।

अमानत

किसकी
हूँ
अमानत
ये
वो
जाने,

रख के
कहीं
भूला है
वो,
मुझे क्या,
वो जाने!

हूँ
मज़े में
खुदमुख्तार
तब तक,
फिर
किस
काम आऊँ,
वो जाने।

किससे

मांगीं
जो
उसनें
वापस
अपनी
अमानतें
तो
याद आया,

कहाँ
होंगी
अमानतें
हमारी,
किससे
मांगें?

सुबह

चलो
उठो
जल्दी,
सबको
जगाओ,
दिन चढ़नें को है।

कहो
सबको
समेटें
फ़टाफ़ट
बिस्तरे,
धोएँ
मुहँ हाथ,
नहायें,
करे दातून,
हो जायें
ताज़ा,
बदलें
घुले कपड़े,
करें नाश्ता,
पहनें
जूते,
कवच और कुंडल,
उठायें तलवारें,
खोलें घोड़े
और
निकलें
लड़नें
पानीपत की
अगली
लड़ाई का
अगला दिन।

Thursday, June 5, 2014

जज़बात

जाने
अनजाने
ऊँघते होश से
चीज़ों की तरह
जज़बात
जहाँ तहाँ
रखकर
भूलता रहा।

वक्त
बेवक्त
मौका
बेमौका
कहाँ कहाँ
मिलते रहे।

Wednesday, June 4, 2014

खुशबू

शमशान
की मिट्टी
में है
बागीचे की सी
खुशबू,

जानें
कौन कौन सा
फूल
इसमें
मिला है!

शपथ

मैं
इंसान मनुष्य मानव
ईश्वर की
शपथ लेता हूँ
कि
मैं
ब्रह्मंडीय विधि द्वारा स्थापित
कुदरत के विधान के प्रति
सहज श्रद्धा
और मासूम निष्ठा रखूँगा ।

मैं
परम सत्य की अनुभूति
सदैव अक्षुण्ण रखूँगा।
इस धरा के
चुने जीव के रूप में
अपने अस्तित्व के अर्थ का
श्रद्धा पूर्वक और शुद्ध अंत:करण से
निर्वहन करूँगा।

मैं
भय या पक्षपात
अनुराग या द्वेष के बिना
सभी प्रकार के
जीवों एवं निर्जीवों के प्रति
परम विधान और विधि के अनुसार
प्रेम करूँगा।

मैं
इंसान मनुष्य मानव
ईश्वर की
शपथ लेता हूँ
कि
जो अनुभूतियाँ और परिदृश्य
धरा के जीव के रूप में
मेरे विचार के लिए
लाये जायेंगे
अथवा मुझे ज्ञात होंगे
उनसे
किसी जीव निर्जीव
अथवा स्वयं को
तब के सिवाय
जब के ईश्वर की रज़ा में
अपनें कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन
के लिए
ऐसा करना
अपेक्षित हो
मैं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में
व्यथा विचलित
या
प्रतिक्रियान्वित
नहीं करूँगा।

Sunday, June 1, 2014

तंदूर

लगेगा
सूरज के
तंदूर को
अब
कुछ तो
वक्त,
जलकर
फिर
जलानें में,

बादलों
ने तो,
कल रात,
रात की बातों में आ
जलती ज़मीन
की पीठ पर
बरसात फेर दी!