सीने में
चुभते
से
को
निकाला
तो
तेरी याद
का
तीर
निकला,
दिल का
छेद
किए था
बंद,
खूं के
रिसनें को
रोके था।
सीने में
चुभते
से
को
निकाला
तो
तेरी याद
का
तीर
निकला,
दिल का
छेद
किए था
बंद,
खूं के
रिसनें को
रोके था।
चटाई
की जगह
आज
जो
बिछा दी
नीचे
सुर्ख़ियों से
लबरेज़
अख़बार,
सुकून से
परिवार
के साथ
बैठ
एक वक्त के
भोजन
का
ज़ायका
जाता
रहा ।
चल
उठा
अपनें
भुट्टे, कोयले,
ये
जगह नहीं
लगाने की
दुकान -
मैंने
कहा।
वो डरा,
सकुचाया
और
काँपती
आवाज़ में
बड़बड़ाया -
बाबूजी,
है तो
नहीं
ये
कार पार्किंग
की भी
जगह ।
अवाक
मैं,
झन्नाया,
ज़ख़्मी सा,
तपाक
बरसा -
जा
मैं
और
मुझ जैसे
सारे,
नहीं खरीदते
तेरे
भुट्टे,
आज से,
ठीक है,
साब -
बेपरवाही से
वो
बोला -
नहीं
उठाते
मैं
और
मेरे जैसे भी,
आज से
तुम जैसों की
सत्ता।
दो
हाथों
से
दुनिया
समेटनी
है
नामुमकिन,
पाते ही
ये
सबक,
जो
थी भी
की
इकट्ठी,
दोनों
हाथों से
लुटा दी।
मिलता हूँ
खुद से
तो
बिन बोले
बातें
हज़ार
करता हूँ।
बात बात
पे
कहता हूँ
दिल की
बात,
फिर
ख़ामोशी की
कसमें
तमाम
देता हूँ।
घूमने
झूलने
वाली
ढीली
कुर्सी पर
बैठ
जब
घूमता
झूलता हूँ,
आती हैं
घूमते झूलते
भूत की
आवाज़ें
कहीं
नीचे से।
चौबीसों
घंटे,
बना
मुद्राएँ
भिन्न भिन्न,
बाज़ुओं से
दोनों,
कहती
हो
क्या?
बदलता
गुज़रता
वक्त
मिटाती हो
हाथों से
करती
कालजयी
नृत्य,
बदलती हो
घड़ी घड़ी,
पकड़ हाथ
समझाती हो
क्या?
हज़ारों
सिपाहियों
से
खड़े हैं
रास्ते में
मेरे,
तन के
सीधे,
मुस्तैद,
ऊँचे,
चौड़े,
तलवारों
सी
शाखाओं वाले
ये पेड़!
कमाल
तेरी
हिफ़ाज़त,
गज़ब
तेरा
इस्तकबाल,
बुलंद
तेरा
परचम ।
नैहर
के करीब
ऐसी ही
सड़क थी,
ऐसी ही
घासनी,
ऐसे ही
चराती थी
मैं
पूरी पूरी
दोपहर,
बाबुल
की गायें,
जैसे
हूँ
चराती
साठ साल
बाद भी
बेटे की,
मरनें के बाद
पति के।
जीवन
के
घटनाचक्र
से
मिला रख
न पाई
कदम
दिल की
घड़ी,
वहीँ है
रुकी
ज़िद में,
जो वक्त
कब का
गुज़र
चुका।
आपके
शहर
के बागों
और
उनमें
गाती
कोयलों
का
कायल
होता,
गर
न
गूँजती
रह रह कर
कानों में
काँव काँव,
कूड़े
वाली
घाटी के
कौवों की।
किस
बात से हैं
भयभीत
जो
जनाब
रूखे
बहुत हैं,
अपनी
ही
चिंगारियों
से
झुलस
जायेंगे,
इस
शहर में
हवाएँ
बहुत हैं।
“जानता
है
तो
फिर
पूछता
क्यों है?” -
मेरे
दिल ने
मुझसे
कहा ।
“तू
भी तो
जानता है,
फिर
तू
भी
क्यों
पूछता है" -
मैंने
कहा ।
सब्ज़ी
वाले का
व्यापार
चल निकला,
सब्ज़ी
वाला
आज़ाद
हो गया।
लगाया
उसने
आज़ादी
में
मन
इतना,
टमाटर प्याज
भिन्डी तोरी
में
गिरफ़्तार
हो गया।
रख दीं
हैं
तरह तरह
की
कलमें
तेरे
सीने
की जेब में,
करे
किसी से
तो
तेरा
जी
लिखनें का,
जो
तेरे
दिल नें
ख़ुद से
कहा है।
कह दूँ
पिता को
बच्चा,
बच्चे को
पिता,
जानता हूँ
उतारा है
किसने
किसको
पहले
पाताल से
बचाकर
आसमां में,
आया है
कौन
बाद में
पीछे,
जागेगा
कौन
बाद तक
इंतज़ार में
अपनें
पिता के।
सब
हैं
एक
तो
कोई भी
चलेगा,
सबमें
है
एक,
वही
तो
मिलेगा।
रोटी
है
पकानी,
सीधे
तवे
या उल्टे,
पेट की
बात है,
वही तो
भरेगा।
दी है
पंडितजी नें
हिदायत
सख्त़
कि
निकलवा लूँ
उनसे
मुहूर्त
शुभ ,
करनें
से
पहले
कोई भी
काम
अशुभ ।
अनदेखा कर
उनकी
तारीख,
करनें हूँ
चला,
काम,
बिन
मुहूर्त
बना
अशुभ
को
शुभ ।
क्यों
महज़
हर्फ़ों
को उठाने
को
तुम्हें काटूँ,
तेरी
डालियों के
पंछियों से
सुन लूँगा,
पत्तियों
से
पढ़ लूँगा,
फूलों की
महक से
साँसें,
तेरे फलों से
दामन
भर लूँगा।
बड़ी
इच्छा
है
कि
जलूँ,
लगे
भीषण
आग,
अंदर तक,
धू धू।
हो जाये
राख़
वो
सब
जो है
व्यर्थ
भारी...
बड़ी
इच्छा
है,
हो
जाऊँ
हल्का
खाली।
खुश हूँ
कितना
क्या कहूँ
जो
है
दुनिया
अचम्भित
"वाह"
की
नज़रों से,
देख
मझे
बंधा
ब्राण्डेड
ज़ंजीरों
में।
भर
के
लाये
पोटलियाँ
दुआओं की
गर्म मैदानों
से
ठण्डे
पहाड़ों पर
खानाबदोश,
सब
लुटा,
अशर्फियाँ
समेट
लौट गये।
जो थे
यहीं के,
दुआओं
से थे
अनजान,
ठगे से
रह गए।
जबसे
तुम्हारे
शिवाला
बन
गए
बाज़ार,
सलाम
तुम्हें
जो
बना लिए
तुमनें
बाज़ार ही
शिवाला,
इबादत
रखी
जारी,
विश्वास
रखा
जिंदा,
नहीं
दिया
मरने,
चाहे
जिसमें।
निकाल
बटुये से
जो
तपाक
थमाया था
उसे
सुबह सवेरे,
दोनों आँखों
से
चूम,
धूप
के नन्हें
बादल
से छू,
ईश्वर
से लगा,
बोहनी
बनाया
उसनें।
हाँ
बहुत
हो सुन्दर,
पर
अब
बस करो,
हो
रही है
खिंची
फूलों
की डालियों
को
बहुत दर्द,
खिंचवाओ
जल्द
तस्वीर,
उन्हें
छोड़ दो।
पूरे
शहर
के पुरुष
नहीं
कर पाये
इस्त्री
आज भी
अपनी
पतलून
कमीज़।
आज फिर
हैं
बिजली
की आँखें
मुंदी,
सारा शहर
सिलवटों
में है।
अच्छी अच्छी
खुशनुमा सी
कर रहे हो
खुद की
नुमाइश,
फिर
किसी
रिश्ते
की
नींव
में
आदतन
कुछ
दबा
रहे हो।
चल
रही थी
जब
तन से
बाहर
हालातों की
लू,
सब कुछ
था
झुलस रहा,
मैं
रहा
बैठा
चुपचाप
भीतर
सुकून से,
बढ़ा
बेपरवाही
के
मोटे
पर्दे,
डाल
होश की
खसखस पर
सब्र का
पानी,
चला
पीछे
आनंद की
हवा,
पीते
संतोष की
शरबत,
पढ़ता
तजुर्बे
की क़िताब।
माज़ी
की
तितली
के
पंख
फड़फड़ाने
से
उठा है
आज
का
तूफ़ान,
आज
के
तूफ़ान
से
कहीं
मुड़ेगा
किसी
तितली
का
पंख
कभी
ज़रूर।
करता
भी कैसे
मनोरंजन
आपका
इससे
कुछ और
ज़्यादा
कविता से
अपनी?
उफ़्फ़
तो
थी
ज़बां पर
आपकी,
छाला
न था।
बेटी
झील से
बाहर
निकलो,
तुम्हें
डाँटना है -
बेहोश होने
से पहले
रोते रोते
पिता ने
कहा।
झील से
आवाज़ आई -
पापा,
आ जाऊँगी
बाहर,
पर
डाँटना
मत।
कुबड़ापन
मेरा
निकालने
को थी
इंतज़ार में
उसकी
ठोकर,
हाय
ताउम्र
बचाता रहा
रीढ़
अपनी
ख़ुदा की
टाँग से।
जिन
विचारों को
बार कई
बे इज्ज़त कर
दिल के
दरवाज़े से
निकाला
हमनें,
उन्हीं को
बुला
बैठाये हैं
आप
पलकों की बाम
बा इज्ज़त
मेहमान
करके!
अपनी
सरहदों
तक
पहुँच
जाते हो
हर
दूसरे
रोज़,
किसी रोज़
जो
सरहदें
खुद आ
गुज़र
गईं
आपसे
तो कीजिएगा
क्या?
उस
खम्बे
को भी
आज
छत को
जर्जर
दीवारों
के सहारे
कुछ वक्त
को छोड़,
हाथ नीचे कर
बाहर
आँगन में आ
टेंशन में
कश
लगाते देखा।
क्रान्ति
के विचारों
की
शाखाओं पर
फूलों को
खिलते
देखा।
चढ़ाऊँगा
ज़रूर
तुम्हारी दी
अशरफ़ियाँ
तुम्हें ही,
पर
तम्हारे
छोटे
मन्दिर
से
बहर वाले
बहुत बड़े
खुले
मन्दिर में ।
ऊँचे
पहाड़ों से
उतर
मंझले
पहाड़ों
मैदानों को
उतरा
मैं
ज्यों ज्यों,
सभ्यता
की
खुश्क हवा
और
सघन
होती गई...
सामने
रखी
पूरी
रोटी
में से
आधी ही
खाने को
जब
दिल किया,
सुबह सुबह
आगे पीछे
दुम हिलाते
मॉर्निंग वाक वाले
उस
दोस्त की
फिर
याद
आई।
अब तो
बदल दो,
कर दो
पेंट
दोबारा,
डाबू
और
मशनू
की
जनसंख्या
के बोर्ड।
मदन
के दादाजी
की है
बर्सी
अगले हफ़्ते,
सतीश
की बहु,
जो
मशनू
से
डाबू
थी ब्याही,
को
बच्चा हुआ है ।
पापा
अभी भी है
वहीँ
वो चट्टान
जहाँ से
आपकी
जीप
गिरी थी
किन्नौर में,
खड़ा हूँ
पूछता
उससे
आपका
पता,
भरी
दोपहर
कहती है
अंधेरा है बहुत,
हाँ
मगर
गई है
नीचे
यहीं से
कोई
चीज़
अभी अभी ।
पहाड़ो
झरनों
वादियों
आओ
भर लूँ
तुम्हें
यादों की तरह
कैमरे
के
झोले में,
टाँगूं
वक्त की
खूँटी पर,
सजाऊँ
माज़ी
की दीवार ।
ढाबे वाले
से
मैंने
पूछ ही
लिया,
ये बच्चा
खेलता खाता
है यहाँ
और
वो
धोता है
जूठे बर्तन
वहाँ,
हो
न हो
ये है
तुम्हारा
और
वो
अपनें
बिसरे
ख़ुदा का।
सुबह सुबह
मन्दिर
की
पार्किंग
को
देख,
इस विचार
से
पुजारी जी
मुस्कुराये,
कि
रात भर
कौन कौन
पहुँचा है
माथा
टेकनें -
चार
इन्नोवा,
तीन
स्कॉर्पियो,
दो
लैंड क्रूज़र,
एक
भरी
बस ।
अंकल
कहाँ है
आपका
शहर,
आपके
बच्चे,
आपकी
पत्नी,
माँ बाप
आपके?
कहाँ से
हो
आप
आये
डीज़ल का
ये
टैंकर लेके?
आओ
छोड़ दूँ
आपको
आपके
घर
अपनी
खिलोने की
कार में
यही
डीज़ल भरके।
न उछल
इंसानों की
तरह
दूरभाष
की तारों
पर,
इन्हीं में
हैं
कहीं
बिजली
की तारें,
चिपक जाएगा,
जा खेल
उछल कूद
पेड़ों की
डालों पर
बंदरों
की तरह,
मीठे फल
पाएगा।
न होती
घड़ी
तो क्या
बड़ी
बात होती,
हर सुबह
ही तो
होती
सुबह,
शाम को
शाम
होती।
होता
वक्त ही
वक्त,
सुई काँटे
की न तलवार
लटकती,
घबराता
न दिल
हर गुज़रती
टिक टिक पर
उसी
सुबह की
वही
जानी पहचानी
शाम होती।
न होती
वक्त की
खबर
मगर
वक्त तो
होता,
इंतज़ार की
घड़ियाँ
न होती
तल्ख़,
कुछ
लुत्फ़ तो
होता।
ढूँढ़
लेते
दो चार
बड़ी
निशानियाँ
काम की
बात करते,
लम्हों की
कीमत
वसूलनें को
बेकार न
हरदम
तिजारत होती।
हथेलियों
में होता
मुस्तकबिल
का पता,
कलाई की
नब्ज़
न होती
बंधी,
आज़ाद
होती,
न होती
घड़ी
तो क्या
बड़ी
बात होती।
कवितायेँ
कितनी
सुंदर
दिखती हैं।
हों
किसी भी
शै में,
हसीन
लगती हैं।
कोई
आए,
देखे,
पहचाने,
खींचे
बाहर,
नहीं कोई
हसरत,
पढ़ पढ़
के
खुद को,
होती हैं
सराबोर,
ख़ुशी के
आँसुओं से
हवा के
सफ़े
भिगोती हैं।
सीली
हवाओं में
कवितायें
कितनी
सुन्दर
दिखती हैं!
टेलीफ़ोन
की
तारों
के बीच
यूँ लगा
चाँद
जैसे
दो
चॉपस्टिक्स
में
दबी
चाँदी की
कोई
मीठी
गोली।
फिर
सोचता हूँ
कहीं
हो ही न
चाँद
उसी की
चॉपस्टिक्स
में
उसी की
गोली।
छटपटाता
है,
हाथ जोड़
मार चीखें
करता है
इल्तेजा,
देता है
दुहाई,
वक्त...
कर दे
कोई
अब तो
उसे
रिहा,
बरसों
पुरानी
तस्वीरों
की
सलाखों से।
चींटियों
की
मिट्टी की
बस्तियों
से हैं
तुम्हारे
ये शहर,
बस बड़े हैं।
उनकी
बस्तियों में
रहती हैं
इंसानों सी
चींटियाँ,
तुम्हारे
शहर
चींटियों से
इंसानों से
भरे पड़े हैं।
चलो
फिर क्या
हुआ,
कर लेना
घुड़सवारी
अगले जनम
कहाँ
जायेगा,
मिल
जाएगा
यही
घोड़ा,
मिट्टी में
इसी
यहीं कहीं।
बस भी
करो,
अब खोदो
मिट्टी,
उतारो
नीचे
कंधे से,
दफ़ना भी दो
लाश
अपनें
भूत की,
नहाओ
खुलकर
झरनें में
आज के,
पहनों
भविष्य की
धुली कमीज़
निकलो
बाहर
दूर तक
ज़रा
घूम के
आओ।
देता न
ज़ेहमत
आपको,
जाता
चला
ख़ुद ही,
चल के,
होने को
दफ़न,
गर
वक्त आखिरी
का इल्म होता।
निकला था
दावत ए जश्न के
बुलावे पर,
जब
इस्तकबाल को मेरे
मेज़बान ए जनाज़ा
निकला।
सालों से
शवों को
शमशान
मुफ़्त
पहुँचा रहे
सर्वजीत,
कफ़न में
जेबों की
क्या दरकार
समझा रहे
सर्वजीत।
मीलों
चल के भी
घर से
पहले
लड़खड़ा गये
जो जो
बशर,
सारथि बन
घर आखिरी
पहुँचा रहे
सर्वजीत।
वो
ऊपर
दूर
चाँद की बगल,
रात की
रौशन
गहरी
बैंगनी
सुरंग में
जो
नन्हा सा
इक
तारा है,
है जो भी
बैठा
उस तारे
के
शहर
की
गली में
ज़मीन पर,
देखता
सोचता
कि है क्या
कोई
बैठा
मेरे जैसा
यहाँ
बिन्दु सी
धरती पर
देखता
उसी को,
कह दो
उसे
कि
हाँ
मैं हूँ
मैं भी हूँ!!!
रणभूमि में
तलवारों के
टकराने की
आवाज़ से
याद आईं
आवाज़ें
रेस्तरां में
प्लेटों
चमचों
छुरी
काँटों के
टकराने की।
योद्धाओं
की ललकार,
हाथियों के
चिंघाड़ने,
घोड़ों की
हिनहिनाहट
से
आई
याद
रेस्तरां में
ललकारते
चिघाड़ते
हिनहिनाते
सामाजिक
जानवरों की।
शबरी
बनकर
दिनों के
बेर
जब
खिलाते हो,
हर रोज़
के निवाले
में
आता है
अर्थ का
स्वाद।
अहिल्या
समझकर
छूता है
जब
तुम्हारा
हर हाथ,
पत्थर होनें का
सवाल
आ जाता है
समझ।
किसकी
हूँ
अमानत
ये
वो
जाने,
रख के
कहीं
भूला है
वो,
मुझे क्या,
वो जाने!
हूँ
मज़े में
खुदमुख्तार
तब तक,
फिर
किस
काम आऊँ,
वो जाने।
चलो
उठो
जल्दी,
सबको
जगाओ,
दिन चढ़नें को है।
कहो
सबको
समेटें
फ़टाफ़ट
बिस्तरे,
धोएँ
मुहँ हाथ,
नहायें,
करे दातून,
हो जायें
ताज़ा,
बदलें
घुले कपड़े,
करें नाश्ता,
पहनें
जूते,
कवच और कुंडल,
उठायें तलवारें,
खोलें घोड़े
और
निकलें
लड़नें
पानीपत की
अगली
लड़ाई का
अगला दिन।
जाने
अनजाने
ऊँघते होश से
चीज़ों की तरह
जज़बात
जहाँ तहाँ
रखकर
भूलता रहा।
वक्त
बेवक्त
मौका
बेमौका
कहाँ कहाँ
मिलते रहे।
मैं
इंसान मनुष्य मानव
ईश्वर की
शपथ लेता हूँ
कि
मैं
ब्रह्मंडीय विधि द्वारा स्थापित
कुदरत के विधान के प्रति
सहज श्रद्धा
और मासूम निष्ठा रखूँगा ।
मैं
परम सत्य की अनुभूति
सदैव अक्षुण्ण रखूँगा।
इस धरा के
चुने जीव के रूप में
अपने अस्तित्व के अर्थ का
श्रद्धा पूर्वक और शुद्ध अंत:करण से
निर्वहन करूँगा।
मैं
भय या पक्षपात
अनुराग या द्वेष के बिना
सभी प्रकार के
जीवों एवं निर्जीवों के प्रति
परम विधान और विधि के अनुसार
प्रेम करूँगा।
मैं
इंसान मनुष्य मानव
ईश्वर की
शपथ लेता हूँ
कि
जो अनुभूतियाँ और परिदृश्य
धरा के जीव के रूप में
मेरे विचार के लिए
लाये जायेंगे
अथवा मुझे ज्ञात होंगे
उनसे
किसी जीव निर्जीव
अथवा स्वयं को
तब के सिवाय
जब के ईश्वर की रज़ा में
अपनें कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन
के लिए
ऐसा करना
अपेक्षित हो
मैं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में
व्यथा विचलित
या
प्रतिक्रियान्वित
नहीं करूँगा।
लगेगा
सूरज के
तंदूर को
अब
कुछ तो
वक्त,
जलकर
फिर
जलानें में,
बादलों
ने तो,
कल रात,
रात की बातों में आ
जलती ज़मीन
की पीठ पर
बरसात फेर दी!