सेवा
तो
कुछ कम
नहीं की
आपने
इस मुल्क
इस सभ्यता
इस भाषा की,
जैसा
दावा है
अनकहा आपका,
इतने
महंगे
में न की होती
तो
महामहिम
ख़ुशी
अनकही
होती।
सेवा
तो
कुछ कम
नहीं की
आपने
इस मुल्क
इस सभ्यता
इस भाषा की,
जैसा
दावा है
अनकहा आपका,
इतने
महंगे
में न की होती
तो
महामहिम
ख़ुशी
अनकही
होती।
सुन सुन के
दुनिया
की
खुशनसीबी
वो
शख्स़
कब का
सूख
गया,
एक
दरख़्त सा
खड़ा है
गढ़ाये
वजूद की ज़मीन में
प्यासी जड़ों के
हज़ार हाथ,
अपने
सर की
बरसात
कब से
भूल
गया।
बहुत दूर
छोटा सा
तो है,
उपग्रह
से कहो
ठीक से
देख ले
जा कर
करीब,
दोबारा,
कहीं
मंगल
की जगह
शनि
न हो।
खुश है
कितना
किस्मत पर,
पढ़कर
प्रीति भोज
का
निमंत्रण पत्र,
वो बकरा,
कोई
समझाए
तो ज़रा
भोले को
नसीब
उसका।
ऊँचाइयों
से
लगता रहा
डर,
ताउम्र
चढ़
न पाये,
वक्त ने
ऊपर से
गहराइयों
को
दिखाया
तो
लपक
चढ़
आये!
नीचे आने का
अब मन नहीं है,
ऊपर जाने को
आसमान नहीं है,
रहने दो मुझे अब
इस परबत की चोटी पर,
दम घुटने का जहाँ
सामान नहीं है!
कीड़े
मकौड़े
सा है,
भिनभिना
और
गुज़र जा,
या
याद कर
तू है
भंवरा,
फूलों के
पराग को
नियती
से मिला,
कायनात
के
निज़ाम में
कुछ
हाथ बंटा।
किसे
था
पता
स्याही
के सीने में
इतना
नूर है,
जिसकी
दवात में हैं
हज़ारों सूरज,
उस
आसमान का
कोई
राज़
ज़रूर है!
क्या
करूँ
ख़र्च
चौबीस में
एक भी
अशर्फ़ी,
मनोरंजन
के
प्यालों पे,
भटकन
की
हाटों में,
भरा है
पेट
सुकून से,
वजूद की
ज़ुबान पर
ज़ायका
कमाल है!
रंजो रश्क़
यही
सोच कर
मुझसे
नहीं होता,
अपनी अपनी
कयामातों के
अपने अपने
वसीले* हैं। (*बहाने, ज़रिये)
उठ
जाग,
निकल बाहर
कब्र से,
देख
तुझे
मिलने
एक
तारीख़
आई है,
लाई है
पका
हाथों से अपने
आरज़ुएँ
तेरी मनपसंद,
और
छुपा
उसी पोटली में
कुछ
ताक़ीद
लाई है।
आप
जिन्हें
आये हैं
मिलने,
वो
अब
यहाँ
नहीं
रहते,
होगी
ज़रूर मिलती
सूरत
हमसे
उनकी,
आवाज़ भी,
गर कहते हैं
आप,
हमारी
ही सी होगी,
पर
मुद्दतों
उस शख्स़ से
अब
मिले
नहीं हैं
हम।
बाँध
रखा है
रिवटों से
चारों
शेरों को
हुक्मरान नें
अपनें
रथ
के पायों से,
वर्ना
याद है
अभी
इन्साफ़
के
प्रहरियों को
सैंतालिस का वादा।
सुला दो
साथ मेरे
एक और
इन्सां,
जगह
है यहाँ,
अब
कहाँ कहाँ
भटकोगे
ढूँढ़नें
कीमती
जहान में
मुफ़्त की
कब्र।
मत दफ़नाओ
मुझे
शहर से दूर
वीराने में,
छोड़ा है
वसीयत में
एक हिस्सा
शहर की
ज़मीन का
इसी वास्ते
मैंने।
तेरी
आँखें
नहीं
अब
झील सी,
न
तेरे बाल
अब
घटाओं
से हैं,
न
अब
हूँ
बेताब
मैं
तेरे लिए
उस
कदर,
न
तुझमें,
ऐ ज़िन्दगी,
मेरे लिए
उस जैसी
बेताबी है।
तेरे
लिए
नहीं हैं बशर
बाग़ ए फ़िरदौस
के
नज़ारे,
सफ़र ए जद्दोजहद
के
मंज़र
तू
देख,
बैठ
उम्र ए दराज़
के किनारे।
स्वामी
सेवक
समक्ष
खड़ा
करबद्ध,
क्या नज़ारा है,
जनतंत्र
के हिजाब में
वाह
क्या
तंत्र
तुम्हारा है!
सुनाओ
कोई आवाज़
जो
उतरे
भीतर
बिन इजाज़त,
बीन डाले
यादें
सारी,
कर
सब
उथल पुथल,
निकाले
ढूँढ़
वो
इक
आह
जो
छुपी है
कहीं
बिन
आहट!
किया है
इस तरह
उसने
मुझे
सलाम
आखिर क्यों?
जानता है
क्या
बारे में मेरे,
है
बेतकल्लुफ़
जो
मुझसे यूँ!
इससे
बेहतर
कि
अनदेखा
करे मुझे,
पहचानता
नहीं मुझे,
अजनबी ज्यों।
तापने को आग
चूल्हे से
ले आये हो
बाहर,
उस
रोटी
का
बाजरा
सारा
बाहर
पड़ा है,
बिना
गूँधे
कहीं
जल
न जाये।
२५६
छल्ले
क़िस्मत के
थे तैयार
सड़क किनारे
आज़माने
क़िस्मत को अपनी
बिक कर
मेरे हाथों
चलने को
साथ मेरे,
एक
मेरी
ऊँगली
की ज़िद थी
कि
पहनेगी
बना कर
ख़ुद ही
गर पहनेगी।
स्याही
के घुंघरुओं
को बाँध
जब
थिरकते हैं
काग़ज़ पर
कलम के
पैर,
कहाँ कहाँ
से
खिंचे
आते हैं
हर्फ़ों
के
घुटे
सामयीं, (audience)
हवा में
खुल कर
जज़बात
लुटाते हैं।
क्या बात है?
बड़ी
याद आ रही है
गाँव के
खेतों की?
देखते हो
अर्श की
छत को
सीली पुतलियों से!
कहूँ
आसमान से
कि न चलाये
हवा के हल
बादलों पे,
यूँ
क्यारियाँ सी
न बनाये!
घोड़े को
होता
इल्म
कि
कमाता है
उसका मालिक
करवा कर
उससे काम,
तो
माँगता
अपना हिस्सा।
उसकी
समझ में तो
था वो
किसी
ताकतवर
जानवर
के गिरफ़्त में
जो देता था
खाना।
बैठा हूँ
सबके बीच,
ठीक जगह,
पूजा में लीन,
कैमरे के
बिलकुल
सामने,
शायद
हो
देखता,
ईश्वर,
सीधा प्रसारण,
लगाये
मेरी
हाज़री।
टूटे
ज़ख़्मी
हाथ से
कैसे
आप
चलायेंगे
मोबाइल?
मैंने
पूछा,
बेबसों
का
बेतकल्लुफ़ी
से
जवाब आया
- उसी ने
चलाना है
हमको,
हमने
क्या
चलाना है!
इतनी दूर
आकर
भी
जब
न दिखी
मंज़िल,
गुरु ने
पीछे
नपे
हज़ारों मील
रास्ते
को
ऊन
की तरह
लपेटकर
कहा
- यही तो है!
कभी नक्षत्र
कभी चाँद
कभी सूरज बन
करते हो
रास्ता
मुझे इंगित,
धुरी
मुझ
नभचर की
बनते हो,
गुरु
क्यों
रुके हो
मेरे लिए,
क्यों
छूटता ब्रह्माण्ड अपना
मेरे लिए
खोते हो!
देह
की मिट्टी में
जब भी
दिख
सुन
उतर
जाते हैं
उड़ते
भटकते
ख़्यालों के
बीज
स्वतः
उग आते हैं
वक्त की
बूँदें पी
ऊँचे
यतीम
जंगली
पेड़।
जज़बातों से
तर बतर,
मेरे अन्दर
एक घना
वर्षावन है।
प्रीपेड
हैं
साँसें,
बैलेंस
पता नहीं है,
किसी दिन
जो
हो जाऊँ
नौट रीचेबल
समझना
पैक
ख़त्म
हो गया।
सवार हैं
घोड़े पर
आप,
समझता हूँ
आपकी
मजबूरी,
घोड़ा
आपका
मजबूर नहीं
चूँकि
उसी को
समझा देखता हूँ,
शायद
दिख जाए
उसे
वो
खाई
जहाँ
लिए जाते हैं
उसे
आप!
छोड़ी है
ज़ुबान की
कमान से
बात,
बिना
ज़ोर की
प्रत्यंचा
बहुत ज़्यादा
खींचे,
देखें
सच्चाई
के
पंखों से
असर
कहाँ तक
पहुँचे।
कहता था
पहले
बहुत है
गर्मी
बरसात लाओ
बरसात लाओ,
अब
कहता है
तबाही है ठण्ड
बस करो
सूरज चमकाओ,
कुदरत को
लगता है वक्त
मौसम बदलने में,
तेरी तो
आदतें हैं
ख़राब
रिमोट के
बटन
दबाने से।
मुझे
क्या पता था
कि
पॉपकॉर्न
की भाप
का बादल
अभी अभी
निकला है
सड़क
की बगल वाली
दुकान से,
परबत बन
जा टकराया
और
भूख
की बारिश से
भीतर तक
भीग गया
श्रीमान,
पीछे
सड़क पर
आपका
कुछ
सामान
गिरा है,
जाकर
उठा लीजिए,
अभी
वहीं
पड़ा है,
मुहँ से
गिरा है,
थूक
ही होगा,
गिर गया
होगा,
गिराया
न होगा।