आपणी
तरजणी
ते अँगूठे नाल
कदी मेरे बुल्लाँ ते
हासा ताँ लेआ,
तजुर्बेयाँ
खत्तेयाँ
दी चपेडाँ दी थाँ,
आपणे पोले पोटे
मेरी सुक्कियाँ गल्लाँ नूँ ला
मेरे पिता परमेश्वर,
मेरे हँजू ताँ पुंज,
किसे आरे ताँ ला!
आपणी
तरजणी
ते अँगूठे नाल
कदी मेरे बुल्लाँ ते
हासा ताँ लेआ,
तजुर्बेयाँ
खत्तेयाँ
दी चपेडाँ दी थाँ,
आपणे पोले पोटे
मेरी सुक्कियाँ गल्लाँ नूँ ला
मेरे पिता परमेश्वर,
मेरे हँजू ताँ पुंज,
किसे आरे ताँ ला!
अब कहाँ
रातों रात
इंद्रधनुष
अपने रंग बदले,
आसमान से कहो
कि सूरज को कहे
कि बादलों से कहे
कि कहीं और
बरसें!
फड़फड़ाती
पताकाओं वाले "है" से
इति के स्तम्भ वाला "था"!
एक अक्षर से भी क्षीण निकली
तेरी वजूद की गाथा।
"आ जाओ माँ,कोई गाड़ी नहीं आ रही,सड़क क्रॉस कर सकते हैं!" -
नेत्रहीन माँ का दायाँ हाथ पकड़े
पाँच साल का बेटा बोला,
"हाँ, हाँ माँ कोई गाड़ी नहीं आ रही, भऊ भऊ!" -
माँ के बायें हाथ से रस्सी में बंधा
नन्हा मोती भी इधर उधर देखकर बोला...
घिसे तो होंगे ज़रूर
तेरे ब्रेक पैड,
मोशन भी टूटा होगा,
एक आध मिनट की
हुई भी होगी देरी तुझे,
और बस पाँच एक रूपये का ही
हुआ फ़ायदा होगा,
पर
बहुत शुक्रिया तेरा
ओ विरल बस के ड्राइवर
रोकने और चढ़ाने का
सड़क किनारे खड़े उस इकलौते बच्चे को
पहुँच गया जो
आज भी
समय पर
गाँव से दूर
अपने स्कूल!
क्या है ज़रूरत
मन्दिरों गुरुद्वारों की
देहात में,
हर कहीं तो
मौजूद है
वो,
शहरों में
बनाओ
जहाँ
सिर्फ़ फ़्लैट हैं!
मॉलिक्यूल मॉलिक्यूल का
हिसाब देखा
क़िस्मत की उंगलियों वाले
ईश्वर के हाथों में,
हैरानगी से देखता हूँ
वो चावल
वो दाल के दाने
जो पहुँचे हैं मेरी थाल में
लंगर की पंक्ति में!
उसकी
अदृश्य
कार पर तो नहीं,
उसके
किराये के मकान
की छत पर थी
एक
सन रूफ़,
सिर्फ़
सर और गर्दन ही नहीं,
पूरा वजूद
निकाल
बैठता था वो
परिवार सहित
इतवार की गुनगुनी धूप सेकने
हर सर्दियाँ।
एक पूरा सौरमण्डल था
तिड़ तिड़ जलता
उस लौ में,
एक मैं
बाहर था
देखता,
एक सूक्ष्म
कहीं भीतर
तपता।
नस्लों
के फूलों
की डण्डियों से
हटाये जो भारी बस्ते
तो कुबड़े निकले,
सूरजमुखी
की कुदरत
के वारिस
समझदार
मजबूरियों के
लैम्पपोस्ट निकले।
एक और एक
ग्यारह हुए
तो मुश्किलें
नौ दो ग्यारह हुईं,
उन्नीस बीस
कि कमी थी
इरादों में,
पूरी क्या हुई
कि पौ बारह हुई!
दिली ख़्वाहिश है
ज़माने की
कि वहाँ पहुँचे
जहाँ जाता है!
कोई बदल दे
जहन्नुम को
जन्नत में
दुआ है मेरी!
तेरे दर से
गर हूँ
ग़ैरहाज़िर
तो कहीं तो
हाज़िर हूँ,
तू भी तो
मुफ़लिसों के ख़ैरख़्वाह!
कभी
कहीं से हो ग़ैरहाज़िर
कहीं हाज़री दे!
जब जब भी मैंने
पूछा उनसे
कि क्या
जानते हैं वो
शान्ति का रास्ता?
बता सकते हैं मुझे?
शरीफ़ाना सा मुँह बना
उन्होंने
हर बार
खोला
बाज़ार का रास्ता!
ख़ामोश पर्बतों पर
ग्लेशियरों के सफ़ेद कम्बलों से रिसती
महावृंद बूँदों की ख़ामोशी
तिब्बत किन्नौर की गलियों में
सतलुज बन
क्या पुरज़ोर गूँजती है!
दुनिया समझती है जिसे
हज़ारों बरस से नदी
हाथ पकड़े अदृश्य बेटियों की
ब्रह्माण्डीय टोली है!
ज्योतिष नहीं हूँ
मगर देख रहा हूँ
भविष्य,
नहा धो
हो तैयार,
छोड़ पीछे
संयुक्त राष्ट्र के मसले,
बस संवार कंघी से
अपने ही सर के बालों की उलझनें,
सजा मुस्कुराते चिकने गालों पर
माँ के प्यार में भीगा चमकता बोसा,
निकल रहा है
गलियों से
जुड़ते सैलाब की तरह,
टाँग पीठ पर
आज भर बस्ते
स्कूलों की ओर...
आलोचकों नें ढूँढी
व्याकरण
मात्राओं की
त्रुटियाँ,
हमनें
सहज भाषा के
कच्चे पक्के
चावलों से
भावनाओं का
पेट भर लिया।
सरे आम
चौराहे पर
पेड़ से
टाँग दिए
सुबह सुबह
बाज़ार में,
तालिबान थे
इन्सां
उन
बेबस
केलों की
नज़र में!
देख
सुबह
क्या हो गई?
देखते ही देखते
दोपहर
फिर शाम हो गई!
होगी रात
तो कौन मानेगा
यही सवेर थी,
सुबह
किसे याद होगी
क्या रात थी!
रावण
कुम्भकर्ण
मेघनाद
से खड़े हैं,
हर शहर
कस्बे
गाँव
के आकाश में
मोबाइल टावर,
तरक्की का सेतू लाँघ
क्या क्या
पहुँच गया
लंका से
यहाँ!
बीनता हूँ
नदी का
सूखा किनारा
शायद कोई
ख़ज़ाना मिले,
दिखे कोई
पानी में उड़ता
क़ैद परिंदा,
कोई बदनसीब
डूबा
अफ़साना मिले।
क्यों बजाते हो
यूँ अटूट लय में
सुनसान बीहड़ की
इन सड़कों पर
ढोल घण्टियाँ
यूँ चलते चलते,
कौन देखता सुनता है
यहाँ!
-पूछा मैंने
नंगे पैरों की कन्धों से,
अजब तेज वाले
पसीने से तर बतर
वो मीठे
पके
कोमल चेहरे
मुस्कुराये
और बोले-
जानते हैं आप
किसे हैं उठाये
पालकी में
हमारे वजूद?
और
असंख्य हैं
जीव निर्जीव
जो रहे हैं
सुन देख
अपने प्रिय देव,
करते सिजदा
हर जगह...
कोई
उन्हें भी तो पूछे
जिनके नाम पर
ये बहस है,
क़ैद में ख़ुद को
चुनवाने की आज़ादी
है किसका हुनर
जिसका इतना असर है
तू जानता है
मेरे दिल की बात
ओ चाँद!
आज छत पर
बस एक मैं हूँ एक तू है!
ये किस इम्तिहान में
गिरफ़्त हूँ
ज़मीं पर,
खुले आसमाँ में तू है!
वो शब्द
अब कहाँ रहे मेरे,
किसी दिन
किसी लम्हे
किसी एहसास से उठी
किसी तरंग से काँप
स्याही बहा
कलम को बिना नदी की कश्ती बना
बिना बने
बने होंगे,
कहते कहते
मेरी बात
गए सूख होंगे,
मैं गुज़र गया
होऊँगा,
वो स्मारक बन
रह गए होंगे,
वो शब्द
अब कहाँ रहे मेरे,
कभी रहे होंगे!
ज्वारभाटे से
जोश के तीर
इरादे की कमान पर
सम्मोहन की प्रत्यंचा चढ़ा
तैयार तो थे
करने अपनी बुराइयों का दहन
क्षणभंगुर आत्म निरीक्षण के रावण,
लक्ष्य की पहचान
की अनभिज्ञता
के असमंजस में
किंकर्तव्यविमूढ़ता नें
क्षत्रिय अहम्
लाचार कर दिया।
अपने अंदर के किसी को
आज मारूँ,
अपने अंदर के किसी को
आज आज़ाद करूँ,
अपने अंदर के किसी की
भटकन भरी तलाश का
करूँ अंत,
कर सरयू किनारे
उसी घर का रुख़,
सुक़ून के बनवास का
शुभारम्भ करूँ।
शुक्र है
आपके दृष्टिकोण से
ये
बस
पीठ किया
टाँगें पसारा
मुँह फुलाया
नौ ही था,
आप पर
तपाक
उंगली उठाये
मेरे दृष्टिकोण के
थुलथुल
छः नें तो
अनबन की
छोड़ी ही न थी
कोई कसर।
करनी ही थी
तो
काश
ख़ुदकुशी यूँ करते,
अपनी देह
साँसों
तमन्नाओं पर
छोड़ते दावा,
दुनिया के लिए
जी कर मरते।
उस शख़्स को
और उठने से रोकने का
बस यही है उपाय
कि उसे ठोकर न मारी जाय,
हज़ारों ठोकरों से
बना है वो,
कहीं और
बन न जाए।
काग़ज़ी बुक्कल मार
चुप चुपीता बैठा सी ओ
चमड़े दियाँ दीवाराँ दे ओहले
लुक के
मार चौकड़ी,
मैं लभ के
जदों
"जा चला जा" केहा
ताँ बाज़ार जा
ख़ुद नूँ वेच
चा दा कप्प लै आया
वास्ते मेरे
मेरे दस्साँ दा
ओ पुराणा नोट।
आपको
खून से लिखा
भेजेंगे दावतनामा
जब आपको
हम ख़ुद बुलायेंगे,
इसे
पैग़ाम ए जार* समझिये,
क़यामत को
कौन समझाये
हमारे दोस्त
हमारे कहे बिन
न आयेंगे।
*जार=पड़ोसी
इतनी बड़ी
सिने तारिका
बम्बई से इतनी दूर
हिमाचल के दूर दराज़
गाँव आयेगी
भरी दोपहर
और वो भी
एक ढाबे वाली का
मन बहलाने
सोचा न था,
वो भी
बीस साल पुराने
ब्लैक एंड वाइट टीवी में,
अद्भुत!
ये सारी दुनिया
कहीं
एक स्केच ही तो नहीं,
नासमझ पछतावे
फैली स्याही,
और भय
मिटाने की
रबड़ तो नहीं,
किसके हाथ है
पेंसिल
दिखे तो,
कहीं
मैं भी तो
लकीरों में
एक लकीर तो नहीं!
स्टेडियम से निकलते
भीड़ देखी
तो सोचा
कि मैच
ख़त्म हुआ,
सीढ़ियाँ
उतर कर देखा
तो दर्शक दीर्घा के नाम पर था
दीवारों से घिरा
एक अंधेरा कोना,
और ऐस्ट्रोटर्फ़ के नाम पर
बस एक
चटाई,
शायद अभी भी
कार पार्किंग की वो बेसमेंट
असामाजिक ही थी,
ताश के खेल का
छुपा
खामोश
स्टेडियम,
सट्टे का अड्डा।
शीशे की दुनिया से
टकरा टकरा
फड़फड़ाती
रूह की
तितली को
आज़ाद करूँ
न करूँ?
जाने
यही खेल है
उसका,
या वाकई क़ैद है वो!
इधर
कुछ दिनों से
कविता की
कुट्टी है
मुझसे,
कलम की
टॉफ़ी दिखा
जब भी बुलाता हूँ उसे,
चुप्पी के गाल फुला
शब्दों की बाहें लपेट
मेरे दिल के कोने में
बेटी सी
बैठी रहती है रूठी।
108 नहीं ताँ
4 पैराँ दी एम्बुलेंस ही सही
शमशान दे आख़िरी अस्पताल तइँ,
दो मेरे मोडे ते
दो क़िस्मत दे सीने,
ऐ वतन
मेरे देशवासियाँ नूँ
कुज ना कहीं!
वो कविताएँ
जो लिखूँगा
उस पार
कितनी हसीन होंगी,
बिना काग़ज़
कलम
आवाज़
रूहों के खुले सभागार में
गूँजेगी उनकी
ख़ामोश प्रतिध्वनि,
जिस्मों की धरती
भले
तब भी
अनजान होगी।
उफनते दरिया में
डुबो कर ही
नाख़ुदा ने
दम लिया,
मैं कहता रहा
मैं खुश हूँ
इस ओर,
मदद की ज़िद में
उसने एक न सुनी।
हिंदी की चाशनी में डूबे
डोरेमॉन नोबिता शिज़ूका जियान के रसगुल्ले
सरहद पार करते हैं जब उर्दू पश्तो की नन्हीं ज़बानों को तर,
कड़वाहट के अभिभावकों को सताता है
प्रेम की डायबटीज़ का मर्ज़,
मिठाईयों पर माँगते हैं पाबन्दियाँ
सताता है अगली नस्लों के सीधा सोचने का डर।
घण्टियाँ ही घण्टियाँ
होंगी
यक़ीनन
खुले प्राँगण सी
इस देह में,
गूँजती है
मन्दिर सी,
जब भी चलती है
साँसों की हवा!
तेरे दस्तख़त हैं
कहाँ कहाँ,
कायनात को छेड़ा है तुमने
कहाँ कहाँ,
अब मिट्टी भी हो जाओ
तो क्या,
ज़मीन को पहले सा कर पाओगे
कहाँ कहाँ,
मेरी मान
ज़िन्दगी में इतना संजीदा न हो,
किस्मत ए यार से लड़ेगा
कहाँ कहाँ,
माना कि तेरे माज़ी के हैं
ज़ख्म हज़ार,
नए फूलों को खिलने से रोकेगा
कहाँ कहाँ,
जो करना है कर ले
इन साँसों से,
बाद में बहती हवाओं से करेगा इल्तजा
कहाँ कहाँ,
चल जा कर
बचा कोई ज़िन्दगी,
ख़ून ए पाक़ से खेल कर
नहायेगा कहाँ कहाँ।
बिना ईंधन के
घूमते हैं
कैसे
ये धरती
ये चाँद
ये सितारे!
अब तो
पूरा शक़ है मुझे
कि सपना देखता हूँ मैं,
मेरा ज़ोर है
लग रहा।
नहीं दिखते
जहाँ रास्ते
होते वहाँ भी हैं,
मंज़िलें
ब्याह लेती हैं जो आँखें
शेष रास्ते
उनसे
छुपा लेती हैं!
न रहे
हुण
ओ मुग़ल
न तुर्क,
ते ना हुण
ओ अफ़ग़ानी रहे,
सरहदाँ नूँ
हुण ए
सिर्फ़
एस तरफ़ दी
चिंता,
ऐना पंजाबियाँ तों
पंजाब बचाओण लई
ओ पंजाबी ना रहे!
हुण
एस तो हेठाँ
पाणी नहीं
लावा निकलेगा,
परत जा
किसान वीरा,
ज़मीन दे
सवालाँ दा जवाब
ज़मीन ते ही
मिलेगा!
मत करो
यूँ
ज्ञान का स्नान,
करवाओ
अपितु
मस्तिष्क की
खुजली का
ईलाज पहले,
पुनः पुनः
डालते रहोगे
अन्यथा
वजूद पर
मूढ़ता की मिट्टी,
ऐ गजराज!
उठा तो दूँ
आपकी समस्या
के समाधान
की दुआ में
अपने
बेबस
बेचैन
झिझकते हाथ,
पहले
मगर
समस्या के
आपको एहसास बाबत
मेरी मन्नत तो
क़ुबूल हो!
बद्दलाँ दी बुक्कल च
ताँ होवणगे
बोतलाँ दे पाणियाँ दे
ख़ौरे
किन्ने दरेया,
जिमीदारा
धरती माँ दे
खाली सीने ते
तू ताँ
अन्ने वा
इंज ट्यूबवैल न चला!
न मैं
करूँगा तारीफ़
न माँगूंगा
माफ़ी,
और न ही
अपेक्षा करूँगा,
करता हूँ
मगर वादा
कि जुडूंगा
ईमानदारी से
बनकर
कटी कलम
तुम टहनी से
देने मौका
फिर उग आने का
हमारी
साँझी
नसें।
छड्ड मीआँ
मुनाफ़ेयाँ दियाँ गल्लाँ,
हिसाब रहण दे,
लेखेयाँ दे
खातेयाँ नूँ समझ,
खातेयाँ च
लिखियाँ नूँ
रहण दे।
भाषा
सही सीखी होती
तो आज
यूँ
सड़क पर न होते,
बिना दुश्मनी के
कोई क्यूँ लगाता
ढाबे में आग!
गर
"तुरन्त चाहिए मसालची"
की जगह
"मशालची" न लिखते!
माँ
बहुत स्वादिष्ट थी
आपके हाथ की बनी
दाल
सब्जी
कढ़ी
और चने भी!
आपके
मन्दिर का
प्राँगण भी
आपकी गोद की तरह था
सुकून से भरा।
ये
इत्तेफ़ाक़ की बात
कि
पंजाब
इसे कहते हैं,
वो लोग
वो माहौल
वो खुशियाँ
अब यहाँ कहाँ,
वो बरकतों के दरिया
अब
कहीं और
बहते हैं।
धुल कर
क्या शफ़्फ़ाक़
सफ़ेद
चमक गई
चढ़ी रात में
ये भीगी वादी!
आसमाँ के
अंधेरों की नहीं,
दिल के सितारों की है
रूह की
ये वादी
आदी।
कहते हो तुम
कि
राजा के किले की
ये धज्जी दीवारें
बिना ईंट गारे के
बनी हैं,
पसीने की
उन नदियों का क्या
जो दर्जों दर्जों में
बही हैं!
रख
दिल पर पत्थर,
और
गुज़र जा,
हैं
और भी
लम्हें
इंतज़ार में
गुज़रने को।
बह जा,
ऐ दरिया!
लहरों में छिप,
मिलने
सागर से अपने,
रहे समझता
ज़माना
कि यहीं है तू,
दे जगह अपनी
किसी और
रवानी को।
कह दो
आसमाँ से
कि
आज
न बरसे,
रूह तक
सूखा है
मेरे वजूद का पृष्ठ,
आँसू न समझ ले
किसी
बूँद को,
सुलग न जाए!
लौटा हूँ
आज
बाद बरसों,
वहीं,
ढूँढने
वही लम्हा,
बनकर
याद की हवा,
करता है
मेरे ज़हन के जंगल में
सायें सायें,
बिना दिखे!
सताता है
मुझे
किसी नन्हें की तरह,
खेलता
मुझसे
आँख मिचौनी
हाथ मगर
आता नहीं,
न मिलना चाहे
मुझसे
न मिले
बेशक़ मुझे,
कोई कह दे
उसे,
रखे
मेरी उम्मीद
ज़िंदा,
लौट आने की
सिहरन
जगाता रहे,
जा चुका हो
भले ही
बहुत दूर
हमेशा के लिए,
खिलखिला मगर गूँजता रहे
मेरे वजूद की वादी में
कि
अभी आया
अभी आया।
पूरी सुराही
ज्ञान की
न सही,
एक प्याला ही
पिला दे,
ऐ वक़्त के दर
नहीं पूरी क़िताब
तो आज
एक सफ़ा ही
पढ़ा दे!