लिख लूँगा मैं
अपनी दास्ताँ
अपनी ज़ुबानी,
बस शान्त रहे चित्त
बराहे मेहरबानी।
कितनी बेरुख़ी से
घूरते हैं हम
उस ज़िन्दगी को
जो आती है
मंसूबों की राह में,
वही बेचारी
मिलती है
मन्ज़िल पर
जब पहुँचते हैं
थक हार के!
कर तो ज़रा
पीठ
अपनी होश पर,
तेरे सन्न कानों में
एक बात कहूँ,
बनू
तेरी ख़ुमारी
के आसमान की
बारिश,
नसीहत से तुझे
तर करूँ।
मारी हैं
आपने
बहुत सी
मुर्गियाँ अपनी
सोने के अण्डों वाली,
बन्द होने को हैं
आपकी खुशहाली
के पोल्ट्रीफार्म
चुनौतियों की
आती सर्दियाँ।