इधर
कुछ दिनों से
कविता की
कुट्टी है
मुझसे,
कलम की
टॉफ़ी दिखा
जब भी बुलाता हूँ उसे,
चुप्पी के गाल फुला
शब्दों की बाहें लपेट
मेरे दिल के कोने में
बेटी सी
बैठी रहती है रूठी।
इधर
कुछ दिनों से
कविता की
कुट्टी है
मुझसे,
कलम की
टॉफ़ी दिखा
जब भी बुलाता हूँ उसे,
चुप्पी के गाल फुला
शब्दों की बाहें लपेट
मेरे दिल के कोने में
बेटी सी
बैठी रहती है रूठी।
108 नहीं ताँ
4 पैराँ दी एम्बुलेंस ही सही
शमशान दे आख़िरी अस्पताल तइँ,
दो मेरे मोडे ते
दो क़िस्मत दे सीने,
ऐ वतन
मेरे देशवासियाँ नूँ
कुज ना कहीं!
वो कविताएँ
जो लिखूँगा
उस पार
कितनी हसीन होंगी,
बिना काग़ज़
कलम
आवाज़
रूहों के खुले सभागार में
गूँजेगी उनकी
ख़ामोश प्रतिध्वनि,
जिस्मों की धरती
भले
तब भी
अनजान होगी।
उफनते दरिया में
डुबो कर ही
नाख़ुदा ने
दम लिया,
मैं कहता रहा
मैं खुश हूँ
इस ओर,
मदद की ज़िद में
उसने एक न सुनी।
हिंदी की चाशनी में डूबे
डोरेमॉन नोबिता शिज़ूका जियान के रसगुल्ले
सरहद पार करते हैं जब उर्दू पश्तो की नन्हीं ज़बानों को तर,
कड़वाहट के अभिभावकों को सताता है
प्रेम की डायबटीज़ का मर्ज़,
मिठाईयों पर माँगते हैं पाबन्दियाँ
सताता है अगली नस्लों के सीधा सोचने का डर।
घण्टियाँ ही घण्टियाँ
होंगी
यक़ीनन
खुले प्राँगण सी
इस देह में,
गूँजती है
मन्दिर सी,
जब भी चलती है
साँसों की हवा!