Monday, October 31, 2016

लैम्पपोस्ट

नस्लों
के फूलों
की डण्डियों से
हटाये जो भारी बस्ते
तो कुबड़े निकले,

सूरजमुखी
की कुदरत
के वारिस
समझदार
मजबूरियों के
लैम्पपोस्ट निकले।

Saturday, October 29, 2016

कमी

एक और एक
ग्यारह हुए
तो मुश्किलें
नौ दो ग्यारह हुईं,

उन्नीस बीस
कि कमी थी
इरादों में,
पूरी क्या हुई
कि पौ बारह हुई!

दुआ

दिली ख़्वाहिश है
ज़माने की
कि वहाँ पहुँचे
जहाँ जाता है!

कोई बदल दे
जहन्नुम को
जन्नत में
दुआ है मेरी!

हाज़िर

तेरे दर से
गर हूँ
ग़ैरहाज़िर
तो कहीं तो
हाज़िर हूँ,

तू भी तो
मुफ़लिसों के ख़ैरख़्वाह!
कभी
कहीं से हो ग़ैरहाज़िर
कहीं हाज़री दे!

लिहाज़

कपड़े पहन कर तो
नाचा कर
ऐ पैसे!

रस्मन
अभी भी है
सभ्य
ये समाज,
कुछ तो
लिहाज़ कर!

Friday, October 28, 2016

कौन

तुम्हारे
चेहरे के पीछे
ये कौन है?

बोलता है
तुम्हारी आवाज़ में,
ख़ुद मौन है!

Wednesday, October 26, 2016

दस्तक

जाने
कौन सा
अनिष्ट
मेरी दहलीज़ पर है,

दस्तक दी है
हराम नें
मेरी हथेली में
फिर आज।

Monday, October 24, 2016

सच

सच बता,
सच!
तू कितना सच है?

है झूठ के शहर में अकेला
या तेरे
कई सच हैं!

Sunday, October 23, 2016

देव

परम् आनंद है
अनभिज्ञता,

रोमांचित हैं
देव,
तभी
मानव हैं।

Saturday, October 22, 2016

तलाश

जब जब भी मैंने
पूछा उनसे
कि क्या
जानते हैं वो
शान्ति का रास्ता?
बता सकते हैं मुझे?

शरीफ़ाना सा मुँह बना
उन्होंने
हर बार
खोला
बाज़ार का रास्ता!

Friday, October 21, 2016

बोलचाल

दुनिया
तुझसे रूठने को
हूँ मैं,

हमारी बोलचाल
टूटने को है,

तेरा झूठ है अब
मलिन हो चुका,

मेरा सब्र भी
अब टूटने को है।

जल

सूरज
पूरब के क्षितिज में था
और मैं
पहली मन्ज़िल पर,

चौथी मन्ज़िल
के पड़ोसी ने
जल उसे चढ़ाया,
चढ़ा मुझे!

Tuesday, October 18, 2016

नदी

ख़ामोश पर्बतों पर
ग्लेशियरों के सफ़ेद कम्बलों से रिसती
महावृंद बूँदों की ख़ामोशी
तिब्बत किन्नौर की गलियों में
सतलुज बन
क्या पुरज़ोर गूँजती है!

दुनिया समझती है जिसे
हज़ारों बरस से नदी
हाथ पकड़े अदृश्य बेटियों की
ब्रह्माण्डीय टोली है!

Monday, October 17, 2016

भविष्य

ज्योतिष नहीं हूँ
मगर देख रहा हूँ
भविष्य,

नहा धो
हो तैयार,
छोड़ पीछे
संयुक्त राष्ट्र के मसले,
बस संवार कंघी से
अपने ही सर के बालों की उलझनें,
सजा मुस्कुराते चिकने गालों पर
माँ के प्यार में भीगा चमकता बोसा,
निकल रहा है
गलियों से
जुड़ते सैलाब की तरह,
टाँग पीठ पर
आज भर बस्ते
स्कूलों की ओर...

चावल

आलोचकों नें ढूँढी
व्याकरण
मात्राओं की
त्रुटियाँ,

हमनें
सहज भाषा के
कच्चे पक्के
चावलों से
भावनाओं का
पेट भर लिया।

सरे आम

सरे आम
चौराहे पर
पेड़ से
टाँग दिए
सुबह सुबह
बाज़ार में,

तालिबान थे
इन्सां
उन
बेबस
केलों की
नज़र में!

देखते देखते

देख
सुबह
क्या हो गई?

देखते ही देखते
दोपहर
फिर शाम हो गई!

होगी रात
तो कौन मानेगा
यही सवेर थी,
सुबह
किसे याद होगी
क्या रात थी!

लंका

रावण
कुम्भकर्ण
मेघनाद
से खड़े हैं,
हर शहर
कस्बे
गाँव
के आकाश में
मोबाइल टावर,
तरक्की का सेतू लाँघ
क्या क्या
पहुँच गया
लंका से
यहाँ!

ख़ज़ाना

बीनता हूँ
नदी का
सूखा किनारा
शायद कोई
ख़ज़ाना मिले,

दिखे कोई
पानी में उड़ता
क़ैद परिंदा,
कोई बदनसीब
डूबा
अफ़साना मिले।

Sunday, October 16, 2016

बीहड़

क्यों बजाते हो
यूँ अटूट लय में
सुनसान बीहड़ की
इन सड़कों पर
ढोल घण्टियाँ
यूँ चलते चलते,
कौन देखता सुनता है
यहाँ!
-पूछा मैंने
नंगे पैरों की कन्धों से,

अजब तेज वाले
पसीने से तर बतर
वो मीठे
पके
कोमल चेहरे
मुस्कुराये
और बोले-

जानते हैं आप
किसे हैं उठाये
पालकी में
हमारे वजूद?

और
असंख्य हैं
जीव निर्जीव
जो रहे हैं
सुन देख
अपने प्रिय देव,
करते सिजदा
हर जगह...

Saturday, October 15, 2016

बहस

कोई
उन्हें भी तो पूछे
जिनके नाम पर
ये बहस है,

क़ैद में ख़ुद को
चुनवाने की आज़ादी
है किसका हुनर
जिसका इतना असर है

दम

वो
सुनने में
थक गए,

हम
करने में
अभी
बेदम नहीं।

दिल की बात

तू जानता है
मेरे दिल की बात
ओ चाँद!
आज छत पर
बस एक मैं हूँ एक तू है!

ये किस इम्तिहान में
गिरफ़्त हूँ
ज़मीं पर,
खुले आसमाँ में तू है!

Wednesday, October 12, 2016

स्मारक

वो शब्द
अब कहाँ रहे मेरे,

किसी दिन
किसी लम्हे
किसी एहसास से उठी
किसी तरंग से काँप
स्याही बहा
कलम को बिना नदी की कश्ती बना
बिना बने
बने होंगे,

कहते कहते
मेरी बात
गए सूख होंगे,

मैं गुज़र गया
होऊँगा,
वो स्मारक बन
रह गए होंगे,

वो शब्द
अब कहाँ रहे मेरे,
कभी रहे होंगे!

Tuesday, October 11, 2016

लाचारी

ज्वारभाटे से
जोश के तीर
इरादे की कमान पर
सम्मोहन की प्रत्यंचा चढ़ा
तैयार तो थे
करने अपनी बुराइयों का दहन
क्षणभंगुर आत्म निरीक्षण के रावण,

लक्ष्य की पहचान
की अनभिज्ञता
के असमंजस में
किंकर्तव्यविमूढ़ता नें
क्षत्रिय अहम्
लाचार कर दिया।

Monday, October 10, 2016

बनवास

अपने अंदर के किसी को
आज मारूँ,
अपने अंदर के किसी को
आज आज़ाद करूँ,

अपने अंदर के किसी की
भटकन भरी तलाश का
करूँ अंत,

कर सरयू किनारे
उसी घर का रुख़,
सुक़ून के बनवास का
शुभारम्भ करूँ।

दृष्टिकोण

शुक्र है
आपके दृष्टिकोण से
ये
बस
पीठ किया
टाँगें पसारा
मुँह फुलाया
नौ ही था,

आप पर
तपाक
उंगली उठाये
मेरे दृष्टिकोण के
थुलथुल
छः नें तो
अनबन की
छोड़ी ही न थी
कोई कसर।