कितना दूर
आ गया
मैं
बहते बहते,
दरिया के बीच ही
किनारा हो गया।
क्या है ज़रूरत
मन्दिरों गुरुद्वारों की
देहात में,
हर कहीं तो
मौजूद है
वो,
शहरों में
बनाओ
जहाँ
सिर्फ़ फ़्लैट हैं!
मॉलिक्यूल मॉलिक्यूल का
हिसाब देखा
क़िस्मत की उंगलियों वाले
ईश्वर के हाथों में,
हैरानगी से देखता हूँ
वो चावल
वो दाल के दाने
जो पहुँचे हैं मेरी थाल में
लंगर की पंक्ति में!
उसकी
अदृश्य
कार पर तो नहीं,
उसके
किराये के मकान
की छत पर थी
एक
सन रूफ़,
सिर्फ़
सर और गर्दन ही नहीं,
पूरा वजूद
निकाल
बैठता था वो
परिवार सहित
इतवार की गुनगुनी धूप सेकने
हर सर्दियाँ।
एक पूरा सौरमण्डल था
तिड़ तिड़ जलता
उस लौ में,
एक मैं
बाहर था
देखता,
एक सूक्ष्म
कहीं भीतर
तपता।