Saturday, December 23, 2017

अमृत

जिव्हा पर
नंगे पाँव चल
कण्ठ से लिपट
उदर में उतरे
अमृत ने
पूछा जब रूह से
कहाँ है वो,

अमृतपान की प्यासी की
बाहर से आवाज़ आई
"मंजी देह की तलाश में"

शुक्रिया

भभकते सूरजों
झूमती हवाओं के समन्दरों
दृढ़ संकल्प पर्बतों का
प्रावधान है
ऐ फूल
तेरे लिए,

मुस्कुरा दे
खिल कर ज़रा,
नहीं और
तो शुक्रिया के लिए...

Wednesday, December 6, 2017

तीर

यूँ ही
कैसे
ले लेता
जान
तीर उनका
ज़हर बुझा,

एक सीना
भी तो
दरकार था
जो मैंने
दिया नहीं...

Tuesday, December 5, 2017

इजाज़त

बड़ी नफ़ासत से
सम्भल सम्भल कर
निज़ाम ने थी
जाने दी
उनकी जान,

इतने मकबूल थे वो
कि उन्हें 
मरने की
इजाज़त न थी।

Monday, November 20, 2017

घड़ा

इंसान...
ईश्वर का बनाया
वो घड़ा
जो
कुम्हार बन गया।

Saturday, November 11, 2017

पृथ्वीराज

सोचा था
सुकून से होंगे
पृथ्वीराज चौहान
इस इत्मिनान में
कि रह सकेंगे वो
दिल्ली में
हमेशा
अपने नाम की सड़क पर,
औरंगज़ेब की तरह
बेघर न होंगे,

मगर नहीं।

हैं वो
बेचैन
उस सोच से
जो बह सकती है
अन बीते इतिहास में
कभी फिर
उलट!

संशय

हाँ,
तू है
ऐसा
रोज़ कहता हूँ मैं,

हाँ,
फिर
संशय में
यतीम सा
रहता हूँ मैं!

Wednesday, November 8, 2017

ਕੱਤਕ

ਕਰਤਾਰ ਦੀ ਕੱਤਕ
ਕਰਤਾਰ ਦੀ ਵਸਾਖ,
ਨਿਮਾਣੇ ਦਾ ਪਿਆਰ
ਸਿਆਣੇ ਦੀ ਸਾਖ।

Tuesday, October 31, 2017

ਦੀਵਾ

ਹਰ ਝੱੜ ਸੰਸਾਰ ਦਾ
ਵਿਚ ਦੀਵਾ ਸੋਹਣੇ ਯਾਰ ਦਾ
ਵਰਤਾਰਾ ਉਸ ਕਰਤਾਰ ਦਾ!

Saturday, October 21, 2017

ਪਰਛਾਈਂ

ਡੁੱਲੀ ਸਿਆਹੀ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ
ਇਕ ਛੋਟੇ ਗੋਲ ਤਲਾਬ ਵਾਂਗੂੰ
ਤੇਰੇ ਪੈਰਾਂ ਚ ਪਈ ਸੀ
ਓਸ ਵੇਲੇ
ਤੇਰੀ ਪਰਛਾਈਂ
ਮੈਂ ਵੇਖਿਆ,

ਲਾਹ ਸੁੱਟੀ ਸੀ ਤੂੰ
ਲਤਾੜ ਕੇ
ਯਾ ਆਪਣੀ ਹੀ ਨਜ਼ਰਾਂ ਵਿਚ ਸੀ
ਢਹ ਗਈ?

ਯਾ ਸੀ ਤੂੰ
ਸੋਚਾਂ ਵਿਚ ਮੁਸਲਸਲ ਬਦਲ ਰੇਹਾ,
ਤੇ ਓ ਸੀ
ਬੈਠੀ ਆਪਣੀ ਹੀ ਪਰਛਾਈਂ ਚ
ਉਡੀਕਦੀ ਤੈਨੂੰ
ਪਹੁੰਚਣ ਦੇ ਕਿਸੇ ਨਿਸ਼ਕਰਸ਼ ਤੇ...

Tuesday, October 3, 2017

हरे ज़ख़्म

कहीं
अभी भी होंगे
मुझमें
ज़रूर
कुछ हरे ज़ख़्म
जो मेरी निगाह में नहीं,

बहती है जो
बात बात पर
मेरी सोच में
इतनी मवाद
जो नीयत ए ख़ैर ख़्वाह
में नहीं...

गाँधी

जब भी दिखता है गाँधी
कभी बेन किंग्स्ले
कभी गोडसे
कभी पटेल नेहरु बोस
कभी अम्बेडकर
दिखता है,

भरा है विषाक्त विरोध से
किस क़दर मेरा ज़हन,
दिखता नहीं
हाड मास के निश्चय का निडर हौसला
जो बार बार
मेरी ही दरारों में कहीं छिपता है!

ਅਫਸੋਸ

ਕੈਮਰੇ ਨੂੰ
ਅਫਸੋਸ ਏ
ਕਿ ਓਹਦੀ
ਸਿਰਫ਼ ਅੱਖਾਂ ਨੇਂ,
ਹੱਥ ਪੈਰ
ਤੇ ਖ਼ੁਦਮੁਖਤਾਰੀ ਦੀ
ਕੁਅਵਤ ਨਹੀਂ,

ਕਿਸ ਕਿਸ ਦੀ
ਨਈਂ ਤਾਂ
ਕੀ ਕੀ ਤਸਵੀਰ ਵਖਾਉਂਦਾ
ਮੁਖੌਟੇਆਂ ਤੋਂ ਓਹਲੇ ਓਹਲੇ।

सफ़र

ख़ुद ही
झुक कर
पहाड़ नें
पीठ पर
बैठाया नहीं होगा,

कुछ तो
रहा होगा
उस शक़्स का सफ़र,
यूँ ही तो
इस मुक़ाम पर
आया नहीं होगा!

पगड़ी

शुक्र है
ख़ुद ही
उतार दी
कुकर्म से पहले
पगड़ी
उसने,

उसके मुखौटे
को
अभी तक थी शर्म,
न थी
बची
जिसमे!

ख़ाली हाथ

होटल के रेस्टोरेंट की दीवार पर लगी तस्वीर को दिखा हाथ में ट्रे उठाये उठाये शर्माजी बोले

"ये विख्यात प्राचीन देव कामरुनाग मंदिर है...और ये उस मंदिर की झील

बहुत ऊँचाई पर स्थित हैं ये..."

फिर खिड़की की तरफ़ इशारा कर बोले...."वो, वहाँ उस पहाड़ की चोटी पर हैं ये मंदिर और झील.

कुछ नज़दीक तक सड़क है जहाँ तक गाड़ी जाती है...फिर कुछ मील पैदल चलना पड़ता है...

यहाँ तक आए हैं तो वहाँ भी हो कर आयें!

बड़ी महानता है इस मंदिर की

और इस झील के बारे में एक बड़ी अविश्वसनीय किंवदंती है..."

हमारे खुले मुँह और प्रश्नों से उमड़ती आँखों को देख शर्मा जी ने बताना जारी रखा...

"कहते हैं इस झील में टनों सोना चाँदी पड़ी है!"

"दर असल मन्नत माँगते समय श्रद्धालु जो भी क़ीमती आभूषण सोना चाँदी अर्पण करने का प्रण करता है, मन्नत पूरी होने पर वो वही वही आकर उस झील में धन्यवाद सरीखे झील में भेंट चढ़ा देता है।"

"सैंकड़ों वर्षों से सोना चाँदी आभूषण सब इसके अंदर ही पड़े हैं। कभी निकाले नहीं गए!"

शर्मा जी चुप हो गए और गूँजता सन्नाटा छा गया।

फिर अनायास मेरे मुँह से निकल गया

"आप तो, शर्माजी, कई बार गए होंगे वहाँ!"

शर्माजी मुस्कुराए और धीरे से बोले

"नहीं!"

सभी सम्मोहित मानसों के सन्नाटे एक ही स्वर में हैरानगी में अनायास टूट पड़े

"क्यों!!!"

शर्माजी कुछ क्षण मौन रहे, फिर मंद मंद मुस्काये और दबी आवाज़ में जाने किस से बोले

"भीतर ही देख लिया था जब मंदिर देव कामरूनाग का तो एक रोज़ स्थिर चित्त वाली समर्पण की झील में पदार्थवाद का हर आभूषण मैंने बहुत पहले ही था भेंट कर दिया। फिर ख़ाली हाथ कैसे जाता!"

कोलाहल

यूँ ही गए
दूर कोसों
बचने कोलाहल से,

सिर्फ़ टीवी का मुँह था
बंद करना
या अपने ज़हन के कान!

अकेला

कोई लेना देना नहीं
जंगल के फूलों को
अर्थव्यवस्था से तुम्हारी

न कोई सरोकार
इन परिंदों को तुमसे
मुबारक तुम्हें व्यस्तता की ख़ुमारी,

हवायें ख़ुश हैं आसमानों में अपने
ततीमों में बटी
बस ज़मीनें तुम्हारी,

हैं सन्नाटे ये बधिर
शोर ओ गुल से तुम्हारे
कुछ और गुनगुनाने की है इनकी तैयारी,

अपने ही उजाले में रहकर सारा दिन गुम
अकेला है इस कदर शाम का सूरज
कि चाँद की गोद में है रोने की बारी

बहाने

मिट्टी को रुलाने के
बहाने ढूँढ लिए,

अय्यार हवाओं को आता था
दम भरना भी बुझाना भी!

Saturday, September 23, 2017

ਪੀੜ

ਜੋ
ਮੰਗਿਆ ਸੀ ਤੂੰ
ਓਹੀ ਦੇਣ ਲੱਗੇਆਂ,

ਸਹ ਲੈ
ਥੋੜੀ ਪੀੜ
ਤੇਰਾ
ਕੰਡਾ ਕੱਢਣ ਲੱਗੇਆਂ!

अरमान

हाँ
जानता हूँ
तेरे
बहुत अरमान बाक़ी हैं,

ज़रा ठहर
मेरे
चन्द पैग़ाम
बाक़ी हैं!

Friday, September 22, 2017

उंगलियाँ

काँटों की
नन्हीं
कोमल
उँगलियों से
पकड़ा जो
इतने प्यार से
फूलों ने
मेरा दामन,

मंज़िल को
बाद एक अरसा
रास्तों में
देखा मैंने!

Tuesday, September 19, 2017

वक़्त से पहले

अच्छा हुआ
वक़्त से पहले ही
आकर
तू चला गया,

असहिष्णुता के उपद्रव
के भोजन को
तू नहीं था,
तेरी बातें थी मात्र
दिखाने को
रास्ता!

Saturday, September 16, 2017

ਸੁਪਣਾ

ਨਾ ਮਿਲੀੰ ਕਦੇ ਤੂੰ
ਪਰ ਖਿੱਚ ਇਵੇਂ ਹੀ
ਪਾਈ ਰੱਖੀਂ,
ਮੇਰਿਏ ਮੰਜ਼ਿਲੇ
ਰਾਹਾਂ ਆਪਣੇ
ਮੈਨੂੰ ਤੂੰ ਪਾਈ ਰੱਖੀਂ!

ਨ ਮਿਟਾਵੀਂ ਮੇਰੀ ਪਯਾਸ
ਬੁੱਕ ਬੁੱਲਾਂ ਤੇ
ਇਵੇਂ ਲਵਾਈ ਰੱਖੀਂ,
ਟੁੱਟ ਨ ਜਾਵੀਂ
ਸੁਪਣੇ ਵਾਂਗੂ,
ਨੀਂਦ ਚ ਮੈਨੂੰ
ਜਗਾਈ ਰੱਖੀਂ!

तीर

चुभते हैं
आपके तीर
मगर इन का
इंतज़ार रहता है,

तड़पता है
हर झूठ
दम निकलने से पहले,
फिर मुक्ति की उम्मीद में
इत्मिनान करता है!

Wednesday, September 13, 2017

शर्त

तेरी हर फ़रियाद
क़ुबूल करने को
राज़ी है
ख़ुदा,
शर्त ये है
कि फिर कभी
फ़रियाद न मानने की
फ़रियाद न करेगा!

छत

बेघर होकर भी
रख पगड़ी पर हाथ
कहता है
कि उसके सर पर
छत है,

क्या ग़ज़ब होगी
गुरसिख की
मनःस्थिति,
जो उसकी
ऐसी मत है!

Tuesday, September 12, 2017

इम्तेहान

न दे सीस
मगर सोच तो दे,

कहता है ख़ुद को सिंह
इम्तेहान तो दे!

Monday, September 11, 2017

काँच की खिड़की

रात
आयेगा
बर्फ़ानी तेंदुआ
ऊँचे दर्रे पर
खुली घासनी में बने
सुनसान विश्राम गृह की
ज़मीन से छत तक लम्बी
काँच की खिड़की
से झाँक
देखने तुम्हें
स्वर्गीय नींद में सोये...

फिर छोड़
पंजों के निशानों के तोहफ़े
परिक्रमा में
तुम्हारे देखने को अगली सुबह,
चला जायेगा
मुस्कुराते
तुम्हारे रोमाँच की वादी में!

Sunday, September 10, 2017

अब्दाली

आया है फिर
बार चौथी
लौट 1764 से
संग बलूचों के
अब्दाली
लिए
अबके
निहत्थों की फ़ौज
ढक सिर
माँगने
हरि के मंदिर में
ईलाही से माफ़ी,

मायूस है मग़र
बे इंतहा
देख खड़े
दरवाज़े पर
गुरु बख्शों की जगह
ये कौन से ग़ाज़ी!

क्यों कर?

मोड़ अमृत से मुँह
ज़हर का प्याला
उन्होंने उठाया क्यों कर?

वो कौन थे मुख़ातिब
दर ओ दरवेश
प्यासों ने पानी से मुँह
घुमाया क्यों कर?

रहने दे

बादशाह को बादशाह
दरवेश को दरवेश
रहने दे,

कोई विरला
हुआ जो दोनों,
ख़ुदा की कुदरत,

वर्ना सत्ता नशीन को
इतिहास तक रहने दे।

Saturday, September 9, 2017

ਡਾਂਗ

ਸੁਣੇਐ
ਸੌਂਦਾ ਵੀ

ਅੱਜ ਕੱਲ ਹੈ
ਡਾਂਗ ਚੁੱਕ ਕੇ,

ਸੁਪਣੇ ਵਿਚ ਵੀ
ਰਹਿੰਦਾਂ ਏ
ਖ਼ਬਰਦਾਰ
ਆਪਣੇ ਹੀ
ਵਿਰੋਧ ਤੋਂ।

बच्चा

आज
ईश्वर को
मिट्टी में
खेलते हुए देखा,

तो अनायास
आसमान में बैठ
दुनिया की रेत से खेलते
बच्चे की
बहुत याद आई!

Saturday, September 2, 2017

राज़

पूछा
ज़माने ने
शाह ए अमीर की खड्ग से
जब
निडरता
निश्चय
कर्म
इंसाफ़ के
हौसले का
राज़,

चमकती
कृतार्थ
आँखों से चूम ली उसने
कमरबंद की वो दूसरी
ख़ामोश शमशीर
जो थी पीर ने बख़्शी!

Thursday, August 31, 2017

पूरा दरिया

करवाओ जो
पूरा दरिया पार,
तो कहे पर आपके
उतरें हम,

यूँ
किनारे किनारे
बातों में
न डुबाओ हमें!

त्रासदी

हम बनाम वो
की बनिस्बत
हम बनाम हम की
निगाह से देखा
तो त्रासदी
कुछ और दिखी,

नरसंहार समझते रहे
जिसको,
जमात की
आत्महत्या निकली।

Wednesday, August 30, 2017

सोच समझकर

बहुत
सोच समझकर
किया है
उन्होंने
इक़बाल ए जुर्म,

एक और जुर्म
चुपके से
लगता है
हो चुका!

निगाह

देख अपने ज़ख़्मों को
कभी अलग निगाह से,
तेरे गुनाह भी छिपे हैं
तेरी कहानी की पनाह में!

हैं अगरचे मुख़्तलिफ़
ज़मीनों के आसमान,
आसमानों की हक़ीक़त
उनकी हवाओं में है!

अभी वक़्त है

अभी वक़्त है
बीते कल के
बीत जाने में,

गुज़र जायेगा
ज़हन से
कल परसों तक,
जब आयेंगे।

जजमेंटल

दुनिया को
समझने के बजाय
जजमेंटल हो गया,
भय
नफ़रतों की रहनुमाई में
ये तू क्या को गया!

Tuesday, August 29, 2017

दीवार

हाथ में
उठाता हूँ
पढ़ने को अख़बार
तो लगता है
जैसे
कंधे से पकड़ा है मैंने
सामने खड़ी
हर ख़बर को मैंने,

टैब में
पढ़ता हूँ
तो लगता है
बीच
बुल्लेट प्रूफ़
काँच की दीवार है कोई।

छोर

बहुत मुश्किल
नहीं था
उसके चरित्र को
नापना,

ख़ुद ही
उचक उचक कर
दिखा रहा था
छोर अपने...

ਜਗਹ

ਭਰੇ ਘੜੇ ਨੂੰ
ਹੁਣ
ਕੌਣ
ਹੋਰ ਭਰੇ,

ਉਡੇ
ਵਕ਼ਤ ਦੀ ਤਾਪ 'ਚ
ਕੁਛ
ਸਮਝ ਦਾ ਪਾਣੀ
ਤਾਂ ਜਗਹ ਬਣੇ।

Sunday, August 27, 2017

वजूद

तेरा वजूद
जब
अभी
आते आते
आने को था,

दुनिया
तब भी थी
जब तू
ख़्यालों के ख़्याल में
आने को था!

Friday, August 25, 2017

बुरा

बुरा माना
उन्होंने,
तो मुझे
बुरा न लगा,

सच
बुरा मान जाता
तो साँस घुटती।

ज़रूरी बात

कर रहा था मैं
कोई बहुत ही
ज़रूरी बात
पाँच सात
लोगों से
आज सुबह
जब
जगा दिया किसी ने
गहरी नींद से,

लौटा
जो सोने फिर से
उन्हें
वहीं पाया
पर पहचान
न सका।

ਕੱਸੀ

ਖੇਤ ਦੀ ਬੱਟ
ਤੋੜ ਕੇ
ਸੜਦੇ ਪਾਣੀ ਨੂੰ
ਨਿੱਕਾ ਜੇਹਾ
ਦਰਿਆ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ,

ਸੋਚ ਦੀ ਮੁੱਠ ਵਾਲੀ
ਹਿੱਮਤ ਦੀ
ਤੇਰੀ ਕੱਸੀ ਨੇ
ਕੀ ਕਮਾਲ ਕਰ ਦਿੱਤਾ!

बड़ी मुश्किल से

कह लेने दे
हक़ीक़त है जो,

बड़ी मुश्किल से
हुआ हूँ
उदासीन
झूठ से मैं!

निगहबान

बनाकर ग़ज़ल को ही
शम्माओं का निगहबान
हवाओं ने परवानों पर
बड़ा करम किया है,

आख़िरी साँसों में थी जो
आतिश ए तिश्नगी
आलम ए बेरुख़ी में,
फिर भभक उठी!

रोज़ रोज़

कहाँ
मानते हैं
अख़बार नवीस
मिले न जब तक
दिल भाती
सुर्ख़ी कोई,

कहाँ से लाये
रोज़ रोज़
ये शहर
वारदात नई।

Thursday, August 24, 2017

पैराशूट

दुनिया के हालातों
की चिंता किये बग़ैर
एक के बाद एक
उतरती रहीं
रात भर
धरती पर
बेपरवाह रूहें
पकड़ पकड़
चुनी देहों के पैराशूट,

रात भर
सरकारी
अस्पताल में
प्रसूतियाँ
होती रहीं!

Monday, August 21, 2017

बिल्ली

काट गया
अनजाने में
जो रास्ता
बेक़सूर चाँद,

धरती नें देख
काली बिल्ली
दी गाली,

सूरज नें
चमकता फरिश्ता समझ
बलायें ली।

अलग आसमाँ

एक अलग
आसमाँ
माँगना पड़ा
चाँद को
आने जाने के लिए,

बूढ़ी धरती ने
ग्रहण कह कह
आते जाते
जब न छोड़ा
लताड़ना उसे!

ਔਰਕੇਸਟਰਾ

ਮੈਨੂੰ
ਕਦੋਂ
ਮਿਲੇਗਾ ਮੌਕਾ,
ਮੇਰੀ ਬਾਰੀ
ਕਦੋਂ ਆਵੇਗੀ?
- ਕਿੱਥੇ ਸੋਚਦਾ ਹੈ
ਕੋਈ ਸਾਜ਼
ਜਦੋਂ
ਔਰਕੇਸਟਰਾ ਵਜਦਾ ਹੈ,

ਹਉਮੈ ਮੁਕਤ ਹਵਾ 'ਚ
ਖਲੇਰ ਸੁਰਤੀ ਤੇ ਵਾਲ,
ਆਨੰਦ ਦੇ
ਉਤਸਵ 'ਚ
ਝੂਮਦੇ ਨੇਂ
ਸਬ
ਰੱਬੀ ਤਰਤੀਬ ਨਾਲ,

ਹੁੰਦੀ ਹੈ
ਸੰਗੀਤ ਦੀ ਬਰਖਾ,
ਸਬ ਕੁਛ
ਜਿਵੇਂ
ਆਪ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ!

Sunday, August 20, 2017

ਅਖ਼ਬਾਰ

ਅਖ਼ਬਾਰ ਵਿਛਾ ਕੇ
ਰੱਖ ਓਸਤੇ
ਰੋਟੀ ਖਾਣ ਦੀ
ਓਹਦੀ ਆਦਤ
ਬੜੀ ਕਮਾਲ ਸੀ,

ਕਰ ਕਰ ਸ਼ੁਕਰ
ਪਾਉਂਦਾ ਸੀ
ਇਕ ਇਕ ਬੁਰਕੀ
ਆਸਵੰਦ ਮੂੰਹ ਚ ਆਪਣੇ,

'ਲੱਖਾਂ ਨਾਲੋਂ ਸੁਖੀ ਸੀ'
ਆਪਣੇ ਰੋਮ ਰੋਮ ਨੂੰ
ਸਮਝ ਕੇ
ਸਮਝਾਉਂਦਾ ਸੀ।

ਫੁਲਕਾ

ਪੰਜ ਦਾ
ਅਖ਼ਬਾਰ,
ਅੱਠ ਦਾ
ਫੁਲਕਾ,

ਜੇ ਇਕ ਨਾ
ਖਾਂਵਾਂ
ਤਾਂ ਕਿੰਨਾ
ਪਾਵਾਂ।

ਹੋਆਂ

ਇਕ ਲੱਤ ਵਿੱਚ
ਹੈ ਲੰਗ
ਤਾਂ ਕੀ ਮੈਂ
ਲੱਤ ਵਾਲੇਆਂ ਵਿੱਚ
ਤੁਰਾਂ ਵੀ ਨਾ?

ਜੇ ਦੁਨਿਆ ਵਿੱਚ
ਹਰ ਕੋਈ ਏ
ਮਾਹਰ
ਕੀ ਮੈਂ
ਹੋਆਂ ਵੀ ਨਾ?

तन्त्र

जैसी प्रजा
वैसा ही
राजा,

राज तंत्र
इह
कैसा साजा!

Saturday, August 19, 2017

ਭੁੱਖ

ਪੰਜ ਦਾ
ਅਖ਼ਬਾਰ,
ਅੱਠ ਦਾ
ਫੁਲਕਾ,

ਅੱਜ ਫੇਰ ਨਾਂ
ਰੱਜ ਜਾਣ
ਭੁੱਖੀ ਅੱਖਾਂ,
ਢਿੱਡ ਦੀ
ਕੀਮਤੇ!

ਚੂਹੇ

ਖੁਸ਼ਕਿਸਮਤ ਹਾਂ
ਅਸੀਂ
ਕਿੰਨੇ
ਹੈਮਲਿਨ ਦੇ ਚੂਹੇ,

ਲੱਭ ਹੀ ਲੈਂਦੇ ਹਾਂ
ਹਰ ਕੁਜ ਚਿਰ ਨੂੰ
ਆਪਣਾ
ਪਾਇਡ ਪਾਈਪਰ
ਬਰਗਲਾ ਕੇ ਲੈ ਜਾਣ ਲਈ
ਸਾਨੂੰ
ਸੁੱਟਣ
ਵਿਚ
ਨਿਰਵਾਣ ਦੇ ਖੂ।




ख़ुशक़िस्मत हैं
हम
कितने
हैमलिन के चूहे,

ढूँढ ही लेते हैं
हर कुछ समय में
अपना
पाइड पाइपर
बरगला कर ले जाने हमें
फेंकने
बीच
निर्वाण के कूएं

क्रान्ति

बामुश्किल
की थी
जान मानस ने
जनतंत्र की क्रान्ति
छोड़
खेत खलिहान
घर परिवार,

ये कहाँ से
आ गया
फिर
कोई
"मसीहा" बनने!

ਫ਼ਕੀਰ

ਅੱਖਰਾਂ ਨਾਲ
ਪੇਟ ਨਹੀਂ ਭਰਦਾ
ਚੰਦਰੀ ਭੁੱਖ
ਭੁੱਲ ਜਾਂਦੀ,

ਰੋਟੀ ਨਾਲ
ਪੇਟ ਭਰ ਜਾਂਦਾ,
ਰੂਹ
ਭੁੱਖੀ ਸੌਂ ਜਾਂਦੀ,

ਦੋ
ਫੱਕੇ ਕਣਕ ਦੇ,
ਚਾਰ ਲਫ਼ਜ਼ ਦੇ
ਬੰਦ,
ਹੋਰ ਕੀ ਚਾਹੀਦਾ
ਫ਼ਕੀਰ ਨੂੰ,
ਨਾ ਤਾਰੇ
ਨਾ ਚੰਦ!

ਦੇਸ਼ਭਕਤ

ਦੇਸ਼ਭਕਤ ਵੀ
ਦੇਸ਼ਭਕਤਾਂ ਨੂੰ
ਹੁਣ
ਆਪਣੀ ਜਮਾਤ ਦਾ
ਚਾਹਿਦੈ!

ਕਿਥੇ ਜਾਣ

ਭਗਤ ਸਿੰਘ
ਇਨਕਲਾਬ ਵਾਸਤੇ
ਜਿੰਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ
ਹਰ ਮੈਦਾਨ
ਇਕ ਰਾਜ ਗੁਰੂ
ਸੁਖ ਦੇਵ
ਅਸ਼ਫਾਕਉੱਲਾਹ ਚਾਹਿਦੈ...




देशभक्त भी
"देशभक्तों" को
अब
अपनी जमात का
चाहिए!

कहाँ जायें
वो
भगत सिंह,
इंकलाब के लिए
जिन को
हर मैदान
एक राजगुरु
सुखदेव
अशफ़ाक़ उल्लाह चाहिए।

अकेला

सरकाओ उन पेड़ों को ज़रा
कुछ बायें
नज़र तो आयें,

उतारो चाँद को
एक हाथ नीचे
और न शरमाये,

बिखेरो ज़रा
बादलों के बाल
लगें कुछ और नशीले,

पर्बतों से कहो
बढ़ा कदम
मेरे क़रीब आयें,

खड़ा हूँ
कब से
अकेला
अपने फ़्रेम में,
तक़दीर से कहो
भरे रंग
बहार लाये।

Friday, August 18, 2017

यक़ीन

यही सोच कर
मेरी ज़ुबान नें
मेरे मुआफ़ीनामे
के अहद पर
दस्तख़त न किये,

मेरी फ़ितरत पर
मेरी ही रूह को
यक़ीन न था...

Thursday, August 17, 2017

भरा

पछतावे
धोखे
डर
मजबूरियाँ
ग़लतफ़हमियाँ
अरमान
संगीत
निर्वाण,

ज़रा
हिला के तो देख
वो शक़्स
किस शै से
भरा है।

ਕਵੀ

ਸੀਨੇ ਵਿਚ ਸਾਹ
ਧਮਨਿਆਂ ਵਿਚ ਖੂਨ
ਬਿਰਤੀ ਵਿਚ ਖ਼ਯਾਲ
ਹੁਣ
ਕਿੱਥੇ ਹੋਵੇਗਾ,

ਕਿੱਥੇ ਰੇਹਾ ਹੋਵੇਗਾ

ਕਵੀ,
ਆਪ ਹੀ
ਹੁਣ ਤਾਂ
ਕਵਿਤਾ
ਹੋਵੇਗਾ!

ਤਰਲੇ

ਕੀਤੇ ਸੀ
ਤਰਲੇ
ਬਥੇਰੇ
ਕਿ ਲੈ ਜਾਵੀਂ
ਘੁਮਾਣ
ਵਿਦੇਸ਼
ਜਾਵੇਂਗਾ ਜਦੋਂ ਵੀ,

ਛੱਡ ਜ਼ਮੀਨ ਤੇ
ਮਿੱਟੀ ਦਾ ਬੁੱਤ
ਉਡ ਗਯਾ
ਨਿਰਮੋਹੀ
ਕੱਲਾ
ਤਾਰੇਆਂ ਦੇ ਦੇਸ਼
ਤਾਪ ਦੇ ਓਹਲੇ ਓਹਲੇ...

ਚੋਰੀ

ਪਾਣੀ
ਅਜੇ ਵੀ ਏ
ਲੋੜ ਨਾਲੋਂ ਵੱਧ
ਗਲੇਸ਼ਿਅਰਾਂ
ਪਰਬਤਾਂ
ਝਰਨੇਆਂ
ਨਦਿਆਂ
ਤਲਾਬਾਂ
ਬੌਡਿਆਂ
ਟੈਂਕਾਂ
ਅਤੇ ਬਰਕਤਾਂ ਦੀ
ਪਾਇਪਾਂ ਵਿਚ,

ਲਾਲਚ ਦੇ ਹੱਥੋਂ
ਹੋ ਗਇਆਂ ਨੇਂ
ਚੋਰੀ
ਸੋਨੇ ਦੀ ਟੂਟਿਆਂ,

ਮਿੱਟੀ ਦੇ ਸੰਗੇ
ਰੇਗਿਸਤਾਨ ਨੇਂ।

सच्चाई

शायद
इसी सबब से
उठता है
आये दिन
शहर में
कोई न कोई,

जायें
बीस पचास
साथ
देखने
अंतिम सच्चाई,
याद रहे।

Monday, August 14, 2017

पहचान पत्र

गौ सी
बच्चियों
के भी रक्षकों के
बनें बॉयोमीट्रिक्स पहचान पत्र
माँग है मेरी,
झाँक
पुतलियों में
सब की,
पढ़ी जाये मस्तिष्कों में
मानसिकता,
अँगूठों उंगलियों की
ले छाप
एहतियातन रखी जाये।

जश्न

आपके
जश्न
के ताप में
ठंडक
क्यों नहीं,

सुनिश्चित
कर लीजिए
आज़ाद हैं आप,
भूरे अंग्रेज़ के
ग़ुलाम तो नहीं!

तीर

कहाँ से निकला तीर
कहाँ कहाँ से हो
कहाँ जा लगा,

करे कौन
घबराई रूह से न्याय
न हुई
जिसे पुष्टि
एक युग तक,
कि उसकी सोच की देह को
कहाँ और कितना
लगा, न लगा।

दबे पाँव

यही सोचकर
निकलते हैं
दबे पाँव
उतार मन्शा की जूती
ओढ़ गुमशूदगी का कम्बल,
गली से आपकी
बेक़सूर
बूढ़े
मजबूर
लफ़्ज़
रात के पिछले पहर,

कहीं पड़ गई जो
आपकी
निरुक्ति भरी नज़र
तो पूरी
कहानी जायेगी।

एहसान

इतना न ले
दिल पर
अंधेरी रात का
एहसान
ऐ चाँद,
कि दब कर
फीका तारा हो जाये,
इसी गर्ज़ से
फैली थी
स्याही
कि तेरे पैग़ाम में
कुछ चमक आये!

Saturday, August 12, 2017

कोहिनूर

चूमने को मिट्टी
बेताब था
कोहिनूर,

ज़िद पर अड़ा था
फिर किसी दौर का शाहजहाँ
उठाए सर पर
ताज महल सा मक़बरा!

द्वारपाल

नतमस्तक है
शस्त्र
मिला जिसे अवसर
होने को द्वारपाल
व्यवस्था के
उस महल का
जिसमें
बसता था
धर्म का
आश्वासन,
प्रेम का
ब्रह्माण्ड।

Friday, August 11, 2017

रंगमंच

छोटू,
सीधा हो कर बैठ
वो सामने
उस कैमरे के पीछे
भगवान है,

ला मुस्कुराहट
चेहरे पर अपने,
न लगे उसे
कि हम
उससे
नाराज़ हैं...

पूछे,
तो कहना
हम
उसके रंगमंच के हैं
बाल कलाकार,
उसकी
सलाम बॉम्बे
स्लमडॉग का
इंतज़ार है!

बस

मस्तिष्क
अभी भी था
हवाई जहाज़ों
रॉकेटों
की होड़ में,

एक देह थी
जिसकी
बस थी
हो चुकी...

रोटियाँ

कुत्तों की क़िस्मत को
सलामत हैं
न जाने कितने
मालिक,
उनकी रोज़ी
रोटी
रोटियों को पकाने और खाने वाले परिवार,
बची रोटियों की बरकतें
बची रोटियाँ रखने को डयोढियाँ,
डयोढियों को छाँव देती छतें,
छतों को सलामत रखती
कुत्तों की आस की
दीवारें!

Tuesday, August 8, 2017

आज सुबह

बजा
आज
कुछ इंस्ट्रुमेंटल
शब्दों को
रहने दे,

ऊँघने दे
रूह को,
आज
सुबह
रहने दे...

दर्द

धोबी की तरह न यूँ सिल पर पटक मुझे,
धो बेशक मल मल कर जितना तू चाहे,
यूँ न कर तार तार मुझे!

यूँ ही सुन ले जो गीत सुनने की चाह है तेरी,
दर्द पहले से है सराबोर तबीयत में मेरी,
और न दे!

दिखा दिखा कर उठाई है ज़िंदगी दस्तरख़ान से मेरे,
कर बे आबरू चाहे जितना
मगर दाम तो दे,

है तू शाहों का शाह जानते हैं सब,
मैं भी तो हूँ मस्ताना,
दाद तो दे,

हुआ होगा तुझे इस सब से जाने क्या हासिल,
मेरा क्या क्या खोया,
हिसाब तो दे,

किस क़याम^ से निकला था किस क़यास^^ को,        
इस अंजाम से मुख़ातिब हूँ मैं   
किस हिसाब से?

^कल्पना    ^^ठहराव

Monday, August 7, 2017

मोटिवेशन

मेरी मोटिवेशन
आप हैं
मेरे ईश्वर,

आपकी
मोटिवेशन
कहीं
मैं तो नहीं?

Friday, August 4, 2017

मुसाफ़िर

रात काटने के लिए
पूछते हैं
मुसाफ़िर
गुरुद्वारा साहिब की राह
तो बताता हूँ
इस मलाल से
कि काश
पूछता
कोई
किसी रोज़
उम्र गुज़ारने
के लिए!

Wednesday, August 2, 2017

बन्दा

दोनों थे मज़दूर
पर एक नहीं था,
मुश्किलों में था दोनों का जीवन
दुःखी मगर एक नहीं था,

थे दोनों वक़्त के मारे
मुरझाया एक था
दूसरा नहीं था,

था एक
बस
झुझारू इंसान,
दूसरा
केवल इतना नहीं था,

मुस्कुराता था दिन भर
देख इलाही की मर्ज़ी,
"ख़ुदा का बन्दा"
ख़िताब कम तो नहीं था!

बधाई

"बधाई हो,
राम खिलावन!
मज़दूर हुआ है!"

Tuesday, August 1, 2017

दरारें

देश की मिट्टी में
जहाँ जहाँ
जितनी भी
सूखी
छिपी
बेहिसाब
दरारें हैं,
रहते हैं
उनमें
सबसे ओझल
कितने देशवासी
जो किसी राशन कार्ड
आधार
पैन
फ़ैरिस्त
गिनती न आते हैं,

हैं वो
अगरचे
यहीं के बाशिंदे,
मगर
साँझे आसमाँ से बाहर
बिन पंखों के परिंदे...

रिश्ते

कितने
गहरे थे
हमारे रिश्ते
इस बात से वाज़े,

याद भी आती है
तो भूलने की...

जी डी पी

बहुत मुमकिन था
देश की
जी डी पी
आज
कुछ
कम हो जाती,

काम आ जाते
देश के
चंद
आर्थिक
जंगजू,

जब चढ़ा दी
मैंने
अपनी कार
इमारत की बेसमेंट में
उन्हीं ईंटों पर
जिन पर बैठ
खेल थे रहे वो सब
जुआ,

बस शुक्र है
उनके
हार जीत कर
जा चुकने के बाद!

Saturday, July 29, 2017

चाय

चाय में दूध
उन्हें पसंद नहीं था,

चीनी
पहले से थी
पास उनके,

उठाई
चुपचाप
बस
बिखरी
चाय पत्ती
इधर उधर से
और
चली गईं
चींटियाँ।

ख़ौफ़

मौत का
ख़ौफ़
रहने दो रिआया में
उठने न दो,
सरफ़रोश
न हो जायें
बचे
आग के दीये,
हवाओं से कहो
हद में रहो!

मर्ज़ी

न हो
मेरी मर्ज़ी से,
तेरी मर्ज़ी
से सही,

ख़ुदी का
न सही
ख़ुदा का
सही!

लत

हाँ
रहता है
एक
पान का ग़ुलाम
चिड़िया की तरह
अंकों वाले
ईंटों से
ताश के पत्तों
के घरों में,

होते
होने देते
स्वयं की
गिनाई
छंटाई
बंटाई
दुनिया के जुए में
लत की तरह।

दुर्लभ

कौन
सुनता है
एक अच्छा
साक्षात्कार
सबेरे सबेरे
और वो भी
इतवार को,

यूँ ही
होता हो
दुर्लभ
आत्म साक्षात्कार
तो कोई
क्यों न करे!

मोहलत

लो
एक और दिन
जीने की
फिर
मोहलत
मिली है,

रात
नींद को
लौटाई
साँसें
सुबह
वापिस
मिली हैं!

तीर

जब भी
खींचा है
मुझे
हैरान तीर की तरह
मजबूरी की कमान पर
हालात की प्रत्यंचा नें,

लगा हूँ
सपनों से परे
निशाने पर
रह
कुछ देर
बेक़ाबू रफ़्तार पर
अनिश्चितता की पवन में!

Friday, July 28, 2017

पैग़ाम

आपके
पैग़ाम का
इंतज़ार
मुझे
दर असल
नहीं है,

मेरी
अलविदा को
रूह
ख़ुदा जाने
यूँ ही
नहीं है!

Thursday, July 27, 2017

साये

लौट के आयेगी
हर वो शै
जिसे छुओगे
बिना पकड़े,

तितलियाँ
ख़ुशबू
साये हैं
ये किस्मतें,
तदबीरें नहीं हैं!

इल्तजा

एक इल्तजा भर थी
जो की थी
बून्दों नें
हज़ारों लाख बार,

प्यार का
पैग़ाम था
जो पत्थर
तराश गया!

शुक्र

माज़ी के
क़ब्रिस्तान पर
खड़े हैं
इन्सां
तेरे हाल के
ताजमहल,
शुक्र के सजदे भी
उठते हैं
शिकायत की तरह!

मछलियाँ

मेरे ही हाथों में
पकड़ा
मेरी सोच का
काँटा,
मुझसे ही लगवा उसमे
मेरी ही तृष्णाओं का
चारा,
मेरी ही इच्छा से
पकड़ती रहीं
मुझे ही
मेरी इन्द्रियों की मछलियाँ,
मेरे ही
पाश के
समन्दरों में,
बेचने
मुझे
मेरे ही
बाज़ार में...

Monday, July 24, 2017

चल नीं माये

चल नीं माये
चल धी* वटा,                 *daughter
व्या आपणी जाई
ओहदे प्रीतम
किसे दी पाली
नूँ^ लेआ,                 ^daughter in law
चल नीं माये
चल धी वटा,

चल नीं धीये
चल माँ वटा,
पै किसे दी झोली
सुन्ने दिल दी बन्झ मुका,
वार के सुट्ट दे चावल सिर तों
नवीं भैण दे वेहड़े
असीसाँ दे दाणे पा,
चल नीं धीये
चल माँ वटा,

चल नीं भैंणे
चल कुक्ख वटा,
ला मेरी जन्नी आपणे सीने
आपणी गुड्डी मेरे मोडे ला,

फुल्लां रखिये
मत्थे चुमिये,
हंजू पुंजिये
शुकराँ पा,
चल नीं भैंणे
चल कुक्ख वटा!!!

Saturday, July 22, 2017

झूठ

बहला के रख
अपने मन को
अभी
कुछ और,

कई झूठ
बोलने हैं अभी
उस सच के लिए!

सही

कुछ तो
सही
किया होगा
दिल ए नादान ने
सफ़र में,

यूँ ही तो
कोई
नई मन्ज़िलों को
गुमराह नहीं होता!

चाय

दस की
हो गई है
चाय,

देती है
मगर
जब तक
सौ की स्फूर्ति
सस्ती है!

मज़ाक

हर शै
जो कहती थी
"तू कर नहीं सकता",

"मैंने तो
मज़ाक किया था"
बोली,
जब मैं
दिखा नहीं रुकता...

Wednesday, July 19, 2017

शर्त

ख़ुद
पहले
खोदनी पड़ी
हमें
अपनी
क़ब्र,

मरने की
शर्त में था
जीना!

Tuesday, July 18, 2017

भूल

भूल जाएगा तू
अपनी ये अवस्था
गर याद रखेगा,

पहचान लेगा
तो कभी न गुमेगा...

मुलाक़ात

फिर
किसी बीमार की
मुझसे मुलाक़ात
उफ़ तौबा,

फिर किसी
परिंदे की
मेरे हाथों
परवाज़
उफ़ तौबा!

Sunday, July 16, 2017

बच्चा

कवितायें तो अच्छी थीं
मगर कवि
अभी कच्चा था,
बच्चा पित्र तासीर था
पिता अभी बच्चा था...

Saturday, July 15, 2017

कक्षा

कुछ सूखे
कुछ रिसते
पिम्पल्स की तरह लगे
पृथ्वी के शुष्क चेहरे पर
वो सारे
ज्वालामुखी
जो दिखे
स्तब्ध अंतरिक्ष यात्रियों की
नम आँखों को,
उस ऊँची
घूमती
स्थिर
यान की कक्षा से,

कितनी
सुंदर
लगी
अपनी जड़ ज़िन्दगी
उस आईने में उन्हें!

आम

झड़े पत्तों
सूखी शाख़ों
के बीचों बीच था
मग़र अरमानों का
आम न था,

बहुत ख़ास था
वो सूरज
जिसे तोड़ लेने को
ललचाता था मन,
रूह के हाथों
मगर
आसान न था...

राइड टू मोरनी हिल्ज़

वो भी
रुक गया
देख
मुझे
रुका
पीछे,

मेरी तरह
उसने भी
जब देखा
हटाकर रास्ते से नज़रें
दिखीं हर तरफ़
मंज़िलें ही मंज़िलें!

आवाज़

देते हो
जिस खुशकिस्मती को
आवाज़
जाकर गली में उसकी
बन कर
भंगार वाला,

कुछ देर तो
रुक करो
वहीं
आस पास कहीं,
देने
उसे
वक़्त
ढूँढ ले आने को
तुम्हारी इल्तजा
का पिटारा...

दुःख

कई हज़ार सालों में भी
नहीं आया
फ़क़त जीने का भी
सलीक़ा
जिस दुनिया को,
सोचता हूँ
कि क्या होगा
मुझे
वाकई दुःख
फ़ना होने पर उसके...

दरार

बहुत कुछ
कहना है आपको
आपकी
सुनने के बाद,

कोई दरार तो दिखे
चुभाने को
रोशनी की तार
बन्द दरो दीवारों की
तरतीब के बाद...

Friday, July 14, 2017

आलिंगन

लंका क्या छोड़ी हमने
हर लंका वासी
आलिंगन को
आतुर है,
ऐ रावण
तेरी
"सुखी" प्रजा
रघुनाथ की
शरणागत है!

Tuesday, July 11, 2017

बिस्तर

कितना
ख़ुश होगा
वो इंसां
जब मिला होगा
आख़िर
आराम का
वही बिस्तर,
जिस पर सोने को
हर बार था
ललचाता
रुक रुक
सड़क किनारे
उस
शमशान के आगे...

भूख प्यास

आज रात फिर
उस ट्रैफ़िक हवलदार को
घर पहुँच
भूख प्यास
नहीं थी,

दिन भर
फाँक कर जो आया था
सेर सवा सेर
धूल मिट्टी,
पी
फेफड़े भर भर
धुआँ!

इन दिनों

साया ही साया हूँ
मैं कहाँ हूँ
इन दिनों?

हूँ अपनी
ग़ैर मौजूदगी में
मौजूद,
कहाँ कहाँ हूँ
फिर भी नहीं हूँ
इन दिनों,

उठाये है ये कौन
मेरा बोझ
और क्यों,
टूटे पत्ते सा
हवा ही हवा हूँ
इन दिनों,

पहेली का राज़ बन
अटकी साँस हूँ कोई,
ये किस जवाब का
सवाल हूँ
इन दिनों,

खामोशियों में गूँजता
वीरानों में जश्न सा
किस ज़ख़्म को छुपाता
कौन सा दबा दर्द हूँ
इन दिनों,

दिखती है मेरी रूह गर तुम्हें
तो छुओ ज़रा,
जिस्मों की दुनिया में सहमा
एहसास ही एहसास हूँ
इन दिनों,

परबत हैं सजदे में
आसमाँ समंदर है,
ये कौन सी है दुनिया
किस सफ़र में हूँ
इन दिनों,

गूँजती है मेरी आवाज़ कहाँ कहाँ
चुप हो कर भी बोलता हूँ,
अपनी ही तलाश में
मिलता हूँ किस किस से
इन दिनों।

Monday, July 10, 2017

नफ़ा

चोरी चकारी
बढ़ेगी
तो होगा
आपके
नफ़े में
इज़ाफ़ा,

वर्ना
जागती दुनिया सदके
मुस्तक़बिल में
आपके
अंधेरे ही
अंधेरे हैं...