Tuesday, February 28, 2017

शोध

स्वयं पर
शोध करवाने हेतु
कहाँ कहाँ
भटकते हैं
यतीम मजबूर विषय,

गुमराहों को
पुरानी सुखद पगडंडियों में हाँकने से
रहनुमाओं को
फ़ुर्सत नहीं!!!

शय

तेज़
ऐन्नी कोलों
लंगी
इक शय
के भम्बीरी बणा गई,

ऐने चिर बाद
अज वी
अक्सर
रेहन्दा घुमदा
आपणी धुरी ते मैं,
आ जावे
बस इक वार फेर
ते समजा जावे
कि की सी?
ते क्यों सी?

होर

गल्लाँ
ओही सी
पर
तासीर
स्वाद
कुज होर सी,

कैण नूँ
सिर्फ़
ज़बान सी
अलेहदा
पर असर ही
कुज होर सी!

Tuesday, February 21, 2017

क्या

हाटों से उठ
गलियों से चल
दरवाज़ों को खोल
डयोढ़ियों को लाँघ
आँखों कानों मस्तिष्क की
खिड़कियों से
वजूद के कमरों में आ,
समा गया है
बाज़ार
इन्सां की रूह में,

कोई बिकना न चाहे
तो क्या करे!

Monday, February 20, 2017

भँवर

तुझे आँकूँगा
वक़्त गुज़र जाने के बाद,
अभी
फंसा है तू
अपनी ही भंवर में
तेरा वक़्त थमा है।

हश्र

तुम्हीं नें इसका
ये हश्र कर दिया,

जिस्म में लिपटी
दी थी रूह,
रूह पर लपेटा
जिस्म कर दिया!

द्रोणा

अँगूठे की जगह
शब्दों की शमशीर भेंट की,
अर्जुन नें
एकलव्य का
यूँ
दर्द बयाँ किया!

Wednesday, February 15, 2017

ख़िलाफ़

बाज़ार
स्कूल
इबादतगाहों
रंगमंचों के
करीब देख लेते
कोई खाली जगह,

पास होते
अपनों के
तो उन्हें देखते रोज़
मन की आखों से,

रण्दोल के डरावने पीरुनाले में
शमशान बनाने के
ख़िलाफ़ थीं
रूहें भी!

चरित्र

सोचता हूँ काट दूँ उंगलियाँ
एक सी नहीं,
और ये बाज़ुयें
एक कहाँ, एक कहीं,

इन टाँगों का क्या करूँ
जाती है एक जो आगे तो दूसरी पीछे,
दो कान जो सुनते हैं एक ही बात
पर अपने सरीखे,

क्या करूँ इस देह का
जो इतनी विचित्र है,
कैसी होगी रूह
जिसका यह चरित्र है,

मस्तिष्क जब एक है तो विचार
इतने क्यों,
इतनी हैं सम्भावनायें
तो जीवन एक क्यों!

Saturday, February 11, 2017

गूगल मैप्स

ज़ूम कर करके देखता हूँ
उस शहर का गूगल मैप,

हो हो रोमाँचित
देख उभरती
धीरे धीरे
हर वो बिसरी सड़क
चिंगारी है जिसका नाम
मेरी यादों के बारूद को!

आँखें फाड़
चिपका हूँ
लैपटॉप स्क्रीन से,
शायद दिख जाए
और ज़ूम की गहराइयों में
वो गली
वो नुक्कड़
वो घर
वो घर के बाहर का चबूतरा,
उस चबूतरे पर बैठी
ख़्यालों में मेरी राह देखती
मेरी वही
मुस्कुराती
बूढ़ी
अमर नानी!

Tuesday, February 7, 2017

स्याल दी सवेर

कदे कदे
सूरज
दिने वी सौं जाँदा,
जदों बद्दलाँ दी बुक्कल नसीब हुन्दी,

विच विच झाक
किनारेयाँ चों
जिवें स्याल दी चढ़दी सवेर
माँ दी गोद च मस्तेया
जागदा, पर फेर वी नींदेया
जवाक कोई,
झट खिच
ताण लैंदा
आपणे चंगे नसीब दी खेसी,

कदे कदे
छड
नाशुक्रे ज़माने नूँ
यतीम,

सूरज
चड़नेयों रह जाँदा!

Monday, February 6, 2017

बीज

इतना डरा दोगे
अर्थ के बीज को
तो कैसे फूटेगा?

कैसे बनेगा
कल्पवृक्ष,
पाश टूटेगा...

तूफ़ान

रात के समन्दर में
विचारों की लहरों पर
सोच की नाव
जब घिर गई
बेचैनी के तूफ़ान में,

रौशनी की प्रार्थना में
डाला जो क़िताब का लंगर
लगा जैसे पालने में हूँ मैं,
लगा जैसे सुक़ून की नींद है आती!

Friday, February 3, 2017

मोमबत्ती

हवा के सीने से
लेकर
दो हाथ भर
ऑक्सीजन
उधार,
एक मोमबत्ती जला लूँ,

इस
सुनसान ऊँचाई पर
अकेले में
ख़्यालों की
महफ़िल
सजा लूँ!