स्वयं पर
शोध करवाने हेतु
कहाँ कहाँ
भटकते हैं
यतीम मजबूर विषय,
गुमराहों को
पुरानी सुखद पगडंडियों में हाँकने से
रहनुमाओं को
फ़ुर्सत नहीं!!!
स्वयं पर
शोध करवाने हेतु
कहाँ कहाँ
भटकते हैं
यतीम मजबूर विषय,
गुमराहों को
पुरानी सुखद पगडंडियों में हाँकने से
रहनुमाओं को
फ़ुर्सत नहीं!!!
तेज़
ऐन्नी कोलों
लंगी
इक शय
के भम्बीरी बणा गई,
ऐने चिर बाद
अज वी
अक्सर
रेहन्दा घुमदा
आपणी धुरी ते मैं,
आ जावे
बस इक वार फेर
ते समजा जावे
कि की सी?
ते क्यों सी?
हाटों से उठ
गलियों से चल
दरवाज़ों को खोल
डयोढ़ियों को लाँघ
आँखों कानों मस्तिष्क की
खिड़कियों से
वजूद के कमरों में आ,
समा गया है
बाज़ार
इन्सां की रूह में,
कोई बिकना न चाहे
तो क्या करे!
बाज़ार
स्कूल
इबादतगाहों
रंगमंचों के
करीब देख लेते
कोई खाली जगह,
पास होते
अपनों के
तो उन्हें देखते रोज़
मन की आखों से,
रण्दोल के डरावने पीरुनाले में
शमशान बनाने के
ख़िलाफ़ थीं
रूहें भी!
सोचता हूँ काट दूँ उंगलियाँ
एक सी नहीं,
और ये बाज़ुयें
एक कहाँ, एक कहीं,
इन टाँगों का क्या करूँ
जाती है एक जो आगे तो दूसरी पीछे,
दो कान जो सुनते हैं एक ही बात
पर अपने सरीखे,
क्या करूँ इस देह का
जो इतनी विचित्र है,
कैसी होगी रूह
जिसका यह चरित्र है,
मस्तिष्क जब एक है तो विचार
इतने क्यों,
इतनी हैं सम्भावनायें
तो जीवन एक क्यों!
ज़ूम कर करके देखता हूँ
उस शहर का गूगल मैप,
हो हो रोमाँचित
देख उभरती
धीरे धीरे
हर वो बिसरी सड़क
चिंगारी है जिसका नाम
मेरी यादों के बारूद को!
आँखें फाड़
चिपका हूँ
लैपटॉप स्क्रीन से,
शायद दिख जाए
और ज़ूम की गहराइयों में
वो गली
वो नुक्कड़
वो घर
वो घर के बाहर का चबूतरा,
उस चबूतरे पर बैठी
ख़्यालों में मेरी राह देखती
मेरी वही
मुस्कुराती
बूढ़ी
अमर नानी!
कदे कदे
सूरज
दिने वी सौं जाँदा,
जदों बद्दलाँ दी बुक्कल नसीब हुन्दी,
विच विच झाक
किनारेयाँ चों
जिवें स्याल दी चढ़दी सवेर
माँ दी गोद च मस्तेया
जागदा, पर फेर वी नींदेया
जवाक कोई,
झट खिच
ताण लैंदा
आपणे चंगे नसीब दी खेसी,
कदे कदे
छड
नाशुक्रे ज़माने नूँ
यतीम,
सूरज
चड़नेयों रह जाँदा!
हवा के सीने से
लेकर
दो हाथ भर
ऑक्सीजन
उधार,
एक मोमबत्ती जला लूँ,
इस
सुनसान ऊँचाई पर
अकेले में
ख़्यालों की
महफ़िल
सजा लूँ!