दुआ
उसने वहाँ माँगी
जहाँ
शायद
ख़ुदा न था,
ख़ुदी में
इतना दूर
निकल आया था वो
शायद!
वज़ीर ख़ान
तू व्यर्थ ही
नर्क गया,
सिक्खी के
साहबज़ादे ही
आज
चुनवाने को हैं
गुरु की बात
उसी के द्वार...
दस मिनट में
वो शख़्स
अपनी
अनलिखी
आत्मकथा के
अंश सुना गया,
छोड़ गया मुझे
लटकता
कौतुहल की रस्सी से
प्रश्नों के पेड़ पर
उल्टा,
मजबूर,
करने को पूरी
कथा वो उसकी
कहानी से अपनी...
जितने भी ईश्वर
तेरी पहचान में हैं,
आज सब को बुला ले,
तेरे वजूद
का है
यज्ञ
कर आह्वान
सारे अपने
बुला ले...
सूख सूख के
मेवे हो गए हैं
भीतर ही भीतर
साल दर साल
परतों में दबते
वो सारे अधूरे अरमान
भावनायें
अनकहे विचार
आत्म मन्थन के विष अमृत...
जब भी लगती है
प्रेरणा की भूख
बीनता हूँ
बिसरा कुछ,
खा लेता हूँ!
समझ रही है
दुनिया
जिसे
तेरे शीत युग की शुरुआत
देख तेरी जटाओं की
सफ़ेदी,
है दर असल
एक जीवन पर्यंत
शीत युद्ध का अंत
बसंत का आगमन।
मैले
घिसे
बदनसीब
चोले को जब
धोना
सवारना
करना रफ़ू
मुमकिन न रहा,
मुनासिब समझा
रूह ए सफ़र ने
चोला बदलना।
बरसने आया था वो
जिसे हवाओं ने
खदेड़ दिया,
उसकी मजबूरी थी
उसकी गर्जना,
भयभीत सेहरा ने
न जाने क्या समझ लिया!
खपरैलों की छतों तले
पक्के हौसले वाली कच्ची दीवारों से सटी
आसमानी नाको की एक गली में छुप
कतार के अनुशासन में खड़े थे
बिन खूँटे बिन रस्सियाँ
बिन चारा बिन पानी
चमड़े की काठी पहने
लोहे के मवेशियों से
थके मगर अभी भी जोश से भरे
निराली नस्ल के
अभी भी भभकते गर्म
वो
प्रवासी
रॉयल एनफ़ील्ड!
प्रशस्ति पत्र के लिए
खड़े देखे जब कतारों में
करबद्ध
लिए हाथों में पात्रता की अर्ज़ियाँ
पदम् की चाह में
इत्र से महकते पुष्प,
तितली होने पर
आज
मलाल आया!
गृह युद्ध
न जाने
कितना और चले,
चलो
बीच ही
रुक
करें अदा
शुक्रिया उस का
उस बात का
समझाने हमें
जतन वो नाकाम करे,
गृह युद्ध
न जाने
कितने और चलें,
आओ बच्चो
बिन वालदेहन
इफ़्तार चलें।
किसी गम्भीर तलाश में है दुनिया
ये आत्म छलावा रहने दे,
ख़ुदा हासिल है जब
कदम कदम पर
और दर किनार है,
कहती रहे अब जो भी दुनिया
उसे कहने दे...
जदों वी जाइदै
कलकत्ता
मद्रास
बम्बे
थोड़ा पंजाब
नाल लै जाइदै,
खाईदै कड कड
अचार दे डब्बे चों
सुक्की रोटी दे नाल
वेले कवेले,
कुज पैन ड्राइव च पा के
उदास दिल नूँ
कर कोशिशाँ परचाइदै,
रख लइदै नाल
इक पुराणी अख़बार पंजाबी
चन्गियाँ मन्दियाँ ओही
रोज पढ़ पढ़
भटके दिल नूँ आरे लाइदै,
नितनेम दा
रखीदै गुटका कोने च ट्रंक दे
बन्न सिर ते परना
सवेरे शाम
पढ़ दिल च वसाईदै,
चलाईदै ट्रक
अमानताँ पुचाईदै,
रिज्ज्क नूँ ला सिर मत्थे
अकाल पुरख दा शुकर मनाईदै...
"मुडाँगा कदे मैं वी
आपणे कलकत्ते आपणे बम्बे तों,
मिलेगा कदे मैनूं वी
आराम मेरे कालचक्कर तों,
मेरी अमानताँ वी मेरी झोली पैणगियाँ"
की की दब्बियाँ अरदासाँ
मन्ना! सीने च रखी दै...
कहो तो
चुनवा दें
शहीदों को
जो बच आये हैं
हारी जंग से
आपकी,
इतने से भी
'गर
तमाशाई प्यास न बुझे आपकी
तो भटकाने
आपके भीतरी खोखलेपन से आप ही का ध्यान
बतायें मजबूर देश क्या करे...
सितारों तक
जिनकी पहुँच न थी
दिल के अम्बर तले लेट गए,
खोल दिये पिंजरे
रूहों के,
जिस्मों के दावे छोड़ दिए!
कहाँ कहाँ तक है दुनिया
तुझे इल्म नहीं है,
तेरे ख़्यालों के शहर तक है
तेरे जिस्म का वजूद
हद ए रूह नहीं है!
आज भी हैं
कुछ जगहें
जहाँ
जन परिंदों से कम हैं,
लोहे के परों पर
उन्मुक्त हो
उड़ते हैं
नाभकीय सड़कों पर
कुछ लोग वहाँ,
बस नज़ारे चुगते हैं,
गुम जाते हैं
जादुई वादियों में
कुछ दिनों के लिए,
पर्बतों की ओट में
बिन अहम
बस आत्मा बन रहते हैं!
on
Just concluded ride to Spiti by
By dear friends
Ashish Dewett and Kanwar Aulakh
बोल सकदी ताँ चीख़ चीख़ दसदी
भन्न भन्न अड्डियाँ सारे शहर च नसदी
खिच खिच ध्यान
घुंड चुक चुक वखांदी
हंजू ख़ुशी दे डोलणे नूँ
भोरा न संगदी,
लैंदी मेरा नाँ
वखांदी मेरा पता
फड़ फड़ सुणान्दी मेरी कहाणी,
ते दसदी कित्थे चलली सी
मिल मिल विछड़दियाँ सहेलियाँ नूँ
कदे रोंदी
कदे लै लै हौके
कमली हो हो हसदी,
किन्नी खुश सी ओ
किन्नी सुदराई
मिलण दे चा च मैनूं
ओ क़िताब
जो मुल्ल भेज
हुणे हुणे
मैं सी मंगवाई!!!
क्यों सुनूँ
तेरी फ़रियाद
कोई आख़िरी तो नहीं,
रखा है
ख़ुद को
कितना कमज़ोर,
बस इलतजायें ही करना
मुनासिब तो नहीं।
आज
वहाँ से टूट के लौटा हूँ
जहाँ से
जुड़ के लौटती हैं
रूहें,
मेरे बिखरने में
बिछड़ी कायनात की
सिसकियाँ हैं!
बस यही सोचकर
मैंने तुझे
मुड़कर नहीं देखा,
कहीं हो न जायें
अल्हड़पन की तेरी पंखुड़ियाँ
घबराकर बन्द
सचेत पुष्प की तरह...
क्यों बख़्श देता है ख़ुदा
हमारे गुनाह
कुछ इल्म है मुझे आज,
दौड़ के जो लगते हैं
उसके बच्चे
गले उसके
एहसास जागने के बाद...
चिंगारियों भरी
नम आँखों से
क़ुबूल ले
गर मुस्कुराते हुए
मुमकिन नहीं,
माँग के
ली है
ये शय
तेरी नियति नें,
कोई वजह होगी।