कुछ दिन
छुट्टी पर चलें?
निकलें
मस्तिष्क से
फ़िज़ाओं में रहें!
हूँ इंतज़ार में
उस दिन के,
(काश! कभी आये)
जब
होकर मायूस
क्रिया कलापों से अपने,
कर बन्द मारना हाथ पाँव,
बैठी देखूँगा
लगभग सारी मानवता,
अपनी अपनी छत
अपने अपने आँगन,
उठाये कौतुहल से रिस्ते सर
देखते काले टिमटिमाते आसमान की ओर
सारी सारी रात
चुपचाप
एकटक
सोचते
कि आख़िर
कौन!
क्या!
क्यों!
नभ विचरण को
गये हैं
बेक़ाबू अरमानों के बुलबुले,
होश की हक़ीक़त को
वक़्त है अभी,
लहर की झाग
बैठने में
समझता हूँ, सागर!
वक़्त है अभी!
करते हैं जैसे
चक्रवात का पीछा
अमेरिका में
दीवाने कुछ,
वैसे ही,
यहाँ भी,
देख लेना,
भागेंगे पीछे
खोये तूफ़ानों के,
ज़ख़्मी परवाने,
उम्मीद से पुकारती शम्मायें
नासमझी की फुंकारों से
जब जायेंगी बुझ।
आदि मानव
इंतज़ार में है
कि परिष्कृत मानव
आपस में लड़ मरे
और उसे
वापस मिले
उसकी धरती,
सुख की साँस ले
कायनात,
हो इक
भयावह ख़्वाब की
इति।