Sunday, August 16, 2015

खिड़कियाँ दरवाज़े

सटाये
दरवाज़ों से
कितने
लठ्ठे,
बन्द खिड़कियों पर
रख
मोटे पल्ले
ठोकीं
लम्बी कीलें
कितनी,
सरकाये
कोशिशों के
कितने
भरे भारी
ट्रंक अलमारियाँ,
फिर भी खोल
घुस आया
भीतर
वक़्त
जिसे रोकता रहा मैं।

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