Tuesday, February 12, 2013

वहाँ


सुबह के ४ बजे थे
कड़ाके की ठण्ड थी
स्याह रात
अभी कुछ बाकी थी।

ठण्डा आसमान ओढ़े
परिंदे और इंसान
अभी सो रहे थे।

ज़रुरी था
सो मुझे जागना पड़ा
रजाई से निकल

मुँह हाथ धोकर
मुँह अंधेरे
घर से निकल

गाड़ी में बैठ
पहाड़ के पैरों पैरों
वादी के कंधों पर
चलना पड़ा ।

काली ढाँक से गुज़रा
तो ख़्याल आया
रेडियो की तरंगें
दिखाई नहीं पड़ती थीं
पर वहाँ होंगी ज़रूर॰॰॰

मोबाइल की लहरें
दिखाई नहीं देती थीं
पर वहाँ होंगी ज़रूर॰॰॰

भगवान भी
अंधेरे मैं
दिखते नहीं थे
पर होंगे ज़रूर॰॰॰॰

और फिर याद आया
सड़क किनारे
स्कूल के रास्ते में
ढाँक के नीचे बनी
दो नन्हीं बच्चियों की समाधि पर
वही दोनों बच्चियाँ
स्कूल ड्रैस पहने
बस्ता लिये
तैयार हो
सुबह होनें
और घण्टी बजने के इंतज़ार में
बैठी दिखती नहीं थीं
पर होंगी ज़रूर ।

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