Tuesday, December 25, 2012

गेहूँ के दाने

धौलाधार की चमकती चोटियों
पर टिके
आसमान
से लटकते
बादलों तले
आँगन के पेड़ से झूलते
पिजरे
में बंद
तोते पर
दार जी को
दया आई
और ठान ली
कि आज उसे
छोड़ देंगे

बहुत देर
वो
अपने बुढ़ापे के साथी
को आखिरी नज़र
पलकों भर
प्यार करते रहे
और फिर
पास बोले

"मुझसे मिलने आओगे?"

तोते की खामोशी
के भार ने
दार जी
की बूढ़ी टाँगों
को खीँच कर
नीचे बिठा दिया

ये देख
तोता
पिंजरे के किनारे
बोला

"मिलने तो ज़रूर आऊँगा
पर आप मुझे
पहचानोगे कैसे ?"

ये सुनते ही
दार जी
के लड़खड़ाते पैरों ने
उन्हें खड़ा कर
हाथों को
पिंजरे तक पहुँचा दिया
और बेताब उंगलियों ने
बेसब्र पंखों को
ड़ने के लिए
सारा आकाश
दे दिया

उस रात
दार जी को
अकेले
नींद नहीं आई

सुबह
सूरज की आँखें
खुलने से पहले
दार जी ने
सारे आँगन में
सुनेहरी गेहूँ के दाने
बिखेर दिये

देखते ही देखते
पूरब की किरणों पर बैठ
दरजनों तोते
दाना चुगने
गये

दो आँसू
दार जी की आँखों
में उमड़े
और पुतलियों से बोले

"वो आया है
पहचान लो "

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