खुशी के पहाड़ पर
चढ़ते
उछलते कूदते
सीटी बजाते
मैंने
दूर पीछे आती
अपनी परछाईं
से कहा
"उदास न हो
खुश हो जा
खुशिओं की धूप
आने को है ।"
परछाईं मुस्कुराई
पगडंडियों पर डगमगाई
ठण्डी गहरी साँसें भरकर
सकुचाई
पर
खामोश रही ।
मैं
फूला न समाया
आगे देख
खुशियों के पहाड़ के
आगे वाले पर्वत भी
लांघ गया ।
पर्वतों की खिली धूप
मेरा हाथ पकड़
उछलते कूदते
सीटी बजाते
गुनगुनाते
मेरे साथ
दूसरी तरफ़
वक्त की ढलान पर
उतर गई
और
मुश्किलों की
अंधेरी वादियों
के दरवाज़े पर
ठिठकी
और
हौले से
अपना गर्म हाथ छुडा
वापिस पहाड़ पर लौट गई ।
सारी रात
ठण्डी
गूंजती
गहरी
सुनसान
वादियों में
चीखती हवाओं के साथ
मैं
अकेला
टकराता
ठिठुरता
भटकता रहा ।
सुबह
दूर आगे
नदी के छोर पर
पिछली परछाईं को
गुनगुनी धुप में
खड़ा पाया ।
मुझे फिर देख
वो मुस्कुराई
और दूर से ही
चमकती आँखों से
बोली
"उदास न हो
खुश हो जा
धूप के बाद
छाँव वाली
शाम की सुबह
फिर
होने को है ।"
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