एक नहीं तीन तीन बेनामी खाते थे उनके, उन्हीं में से वो सारे खाते थे,
पासवर्ड नहीं था कोई उनका, गाँठें थी तीनों पर एक एक, हाथों की लकीरें दिखा खोलते बाँधते थे,
गुड़ चावल दान का आटा था भीतर, बाहर आँखों वाले जाने क्या क्या आँकते थे!
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