चढ़ आया था जो पीठ पर सुबह सुबह, काँधों पर ढली सुबह उतरा था,
बाहों में था जो दूसरे पहर, शाम की कमर पकड़ उतरा था,
ढलती शाम फिर डूबता वो सूरज, जाने क्या समझाता था|
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