Sunday, November 1, 2015

भरा

सुन रहा हूँ
अब
ख़ामोशी से
ऐ कुदरत!
तेरी हर आवाज़
कानों
आँखों
चमड़ी के पोरों से,

कितना
बोला हूँ मैं नासमझ,
भरा
आकण्ठ
अपने शोरों से!

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