सुन रहा हूँ अब ख़ामोशी से ऐ कुदरत! तेरी हर आवाज़ कानों आँखों चमड़ी के पोरों से,
कितना बोला हूँ मैं नासमझ, भरा आकण्ठ अपने शोरों से!
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