कहाँ कब मज़हब की जंग मज़हब से हुई है, ये दासताँ तो फ़क़त सुनाई सुनी है,
जिस फ़साद को दिया है रंगरेज़ नें मज़हब का रंग, किसी सियासतदां के हुक़्म की तामील हुई है!
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