ग़ज़ल की तर आवाज़ जो बहकर उतर जाने दी रोम रोम के रास्ते ज़हन में, फिसलने लगीं उलझनों की कसी रेशमी रस्सियाँ, गाँठें सब खुलने लगीं।
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