Tuesday, April 1, 2014

बैसाख

आ गई
फिर
विचारों की
बैसाख।

दिल है
बाग़ बाग़
देख
खरीफ़ कविताओं
की
लहलहाती
फ़सल।

चलो
ज़हन की मिट्टी
को
अब लेने दूँ
साँस,
छोड़ दूँ अकेला
करनें दूँ
आराम,
सोनें दूँ।

न डालूँ
उतावले अहसासों से
गर्भ का बोझ
इसकी झोली,
हल्के पाँव
ज़मीं को
कुछ देर तो
उड़नें दूँ।

उठे
फिर
जो सो कर
बाद दिनों,
परतें खोल
इसकी
विवेचन के
परिंदों को
आलोचना के
कीड़े चुगनें दूँ।

मिलाऊँ
तजुर्बे में
नवीनता की
खाद,
समझ का
रंग परतनें दूँ,
नया होनें दूँ।

उखाडूँ
जड़ता की
खरपतवार,
सहजता से
ख़ुद को
सींचनें दूँ।

उतरनें दूँ,
फिर,
नई दुनिया के
बीज इसमें,
रबी की
कवितायेँ
उगनें दूँ।

No comments:

Post a Comment