पेड़ों
के चूल्हे पर
पकाती थी
हाथों से
उतार
गर्म गर्म
खिलाती थी,
बुझाती थी
सदियों
की प्यास
कभी
कूओं की
सुराही से
कभी
नदियों की
बुक से
पिलाती थी।
करती थी
बादलों की
चुन्नी से
छाँव,
हवा की
फूँक से
सहलाती थी।
पहनाती
कभी
मखमली
घास की
चप्पल,
कभी
मिट्टी से
माँज
भटकन के चक्र
पैरों से
मिटाती थी।
धोती थी
पैर
ला ला के
दूर से
लहरें
बार बार,
पूरब की
हवाओं से फिर
सुखाती थी।
बिठाती
वादियों की
गोद,
खामोशिओं की
लोरियाँ
सुनाती थी।
रखती थी
निगाह
हर दम
चाँद सितारों
की हज़ार
आँखों से,
जलते सूरज
की नज़र से
रात भर
बचाती थी।
यतीम को
पालती थी
माँ से ज़्यादा,
कुदरत आई
तुम्हें
मैं
कभी
माँ कहूँ,
अब समझता हूँ,
तुम
चाहती थी!
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