Saturday, April 12, 2014

खलल

तुम्हारा
ही था
सर
झुकाता कैसे,
तुम्हारी ही
ज़ुबान,
माँगता कैसे?

देता
कैसे
टेक
तुम्हारे घुटनें,
फैलाता
कैसे
तुम्हारे ही
हाथ?

आ कर
तुम्हारे ही
घर,
चलकर
पैरों पर
तुम्हारे,
तुम्हारी ही
आँखों से
तुम्हें देख,
हूँ
सोचता
बस यही,

कहीं
हूँ तो नहीं
तुम्हारी ही
प्रार्थना!

कहीं
बन न जाऊँ
सबब
खलल का।

कहनें
करनें
होनें दूँ
तुम्हें
मुझमें,
रहूँ
खामोश
देखता
सुनता
मुस्कुराता
खड़ा
कोने।

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