शम्मा सा जलता है जब दिन भर सूरज, शाम तक पतंगे सा तड़प गिर ही मरता है इन्सां कैसे!
लगाती है जब मरहम ठण्डी चाँदनी, सहलाती है चेतना के झुलसे पंख, उठ जा बैठता है मुर्दे सा सुबह फिर उसी महफ़िल।
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