Monday, April 28, 2014

पतंगा

शम्मा सा
जलता है
जब
दिन भर
सूरज,
शाम तक
पतंगे सा
तड़प
गिर ही मरता है
इन्सां कैसे!

लगाती है
जब
मरहम
ठण्डी चाँदनी,
सहलाती है
चेतना के
झुलसे पंख,
उठ
जा बैठता है
मुर्दे सा
सुबह
फिर
उसी महफ़िल।

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