पहचान ही
लेती है
पर्वत पिता
के
दो ऊँचे हाथ
दूर से ही,
नदी,
उछलती
कूदती,
फाँदती,
खिलखिला हँसती,
दौड़ती,
कभी
छ्पिकर चलती,
दबे पाँव
घाटी की
ओट ओट
उनकी गोद।
उठाते
खेलाते
पालते
सम्भालते
चलाते हैं
फिर
पिता,
उसे,
पकड़ा
तलहटी की
उंगलियाँ,
करनें
सुपुर्द
विदा
उसे
खुले
मैदान के हाथ,
उड़ते
फिर
पास पास
ऊपर,
बन के हवा
समन्दर तक,
लाने
फिर उसे
वापस
उसी हिमालय
जनम को
अगले
उठाकर
गोद
बनाकर भाप।
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