Friday, April 25, 2014

पर्वत

पहचान ही
लेती है
पर्वत पिता
के
दो ऊँचे हाथ
दूर से ही,
नदी,
उछलती
कूदती,
फाँदती,
खिलखिला हँसती,
दौड़ती,
कभी
छ्पिकर चलती,
दबे पाँव
घाटी की
ओट ओट
उनकी गोद।

उठाते
खेलाते
पालते
सम्भालते
चलाते हैं
फिर
पिता,
उसे,
पकड़ा
तलहटी की
उंगलियाँ,

करनें
सुपुर्द
विदा
उसे
खुले
मैदान के हाथ,
उड़ते
फिर
पास पास
ऊपर,
बन के हवा
समन्दर तक,
लाने
फिर उसे
वापस
उसी हिमालय
जनम को
अगले
उठाकर
गोद
बनाकर भाप।

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