Sunday, April 20, 2014

मंज़र

ज़रूर पहनता
बढ़िया कपड़े
गर दिन
आज
कुछ
ख़ास होता,
बनाता
खाता
लज़ीज़ पकवान
गर
उत्सव कोई
नायाब होता।

परोसता
उन्हें भी
भोजन,
पिलाता पानी,
करता
उनके
जूते भी साफ़,
चमकाता,
और
झाड़ता
धूल
कुछ खुद से भी,
होता गर
ईश का द्वार
कोई पर्व होता।

रोकता
हाथों को
इमां के कत्ल से,
समझता
सामनें वाले
की बात,
बात का मान करता,
समझता
अपनाता
कुछ धर्म की बात
निर्मल मन से
कुछ
निस्वार्थ करता।

हैं
पर्दे के पीछे
फ़िलहाल वही मंज़र,
वही ज़ंजीरें
वही सवाल,
भीतर का नज़ारा
भी बदलता
तो कमाल होता।

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