बनाकर ग़ज़ल को ही शम्माओं का निगहबान हवाओं ने परवानों पर बड़ा करम किया है,
आख़िरी साँसों में थी जो आतिश ए तिश्नगी आलम ए बेरुख़ी में, फिर भभक उठी!
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