Saturday, February 22, 2014

खिड़की

एक खिड़की
मेरे कमरे की
लम्बी दीवार टंगी
चौड़ाई की ओर
खुलती है
बस एक इशारे
रात अँधेरे
मुहँ उजाले |

ले आती है
दुनिया
मुझ तक
करने
मुझे
खुश
रौशन
सराबोर
भरनें मेरा खालीपन |

है दुनिया के लिए
बड़ी
निकल आती है जो सारी
उसमें से
मुझ तक
पर
मुझ से है छोटी
नहीं जा सकता
उसमें से
मैं
ख़ुद से बाहर
कहीं |

कैद हूँ
सदियों से
खिड़की के
इस तरफ़
इस खुले
कमरे |

हैं दरवाज़े
तो बहुत
घर में
खुलते हैं जो
सड़क
बाग़
पहाड़
नदियों
पर,
नहीं है
मगर
खिड़की
दुनिया की
उस जैसी
कोई और |

No comments:

Post a Comment