Saturday, February 15, 2014

कौन

जाड़े की
जमी ओस सी
सुबह से पहले
मुहँ अँधेरे
कोई
रजाई का
मुहँ हटा
कानों में
क्या फुसफुसाता है,
कोई नई बात कहता है
दोहरवाता है तब तक
नींद में
जब तक
याद न हो
होश के लिए,
और जब
खुल ही जाती है नींद
उठके देखता हूँ
न रजाई
न छत
न बादलों में ही
कोई पाता हूँ
कौन आता है मुहँ अँधेरे
मुहँ छुपा
उड़ जाता है

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