Sunday, February 23, 2014

अख़बार

जब वो
10 दिन
अख़बार फेंकने
नहीं आया
मुझे आया बहुत गुस्सा
खूब झुंझलाया ।

पहले सोचा
आने दो
पैसा लेनें
बताता हूँ,
फिर सोचा
ख़ुद ही जाऊँ
ढूँढूं उसे
लताडू ।

कई सुबह
हुई बड़ी मुश्किल
सूरज आये भी
दिन जगने को ।

दुनिया की रेल
के छूटने
की सीटी
सुनती रही
हर सुबह
देर तक ।

तरह तरह के ख़्याल
मचाते रहे
हुडदंग
ज़हन के
बिन बाड़ वाले
मैदान में ।

वतन ए ख़याल ए आज़ादी
बदअमनी
फैलने को थी ।

पर
फिर
एक सुबह
जब
होश की
ऊँची
चारदीवारी
के बाहर से
कोई शोर
न सुना,
और
न जानें क्यों
अच्छा सा लगा,
दिल नें
हौले से
तमन्ना की
कि
वो न आये
अख़बार फेंकनें
अब ।

आएगा
जब भी
हर महीनें
बिल लेकर
दे दूँगा
यूँ ही...

देता रहूँगा
हमेशा
तब तक
करे अगर वादा
नहीं फेंकेगा
खबरों
के कोयले
मेरी शांति
के तिनकों में
सुबह सवेरे ।

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