Wednesday, February 26, 2014

कूआँ

चीखती दुनिया
की
तपती धूप
जब मेरे अंदर के
सारे खेत
सुखा,
डाल देती
गहरी दरारें,
जीवन का वृक्ष
हो जाता ठूँठ,
जाकर
अपनें
किसी कोने
ख़ामोशी के कूएँ से
भर लाता हूँ
सुकून का पानी
बाल्टियों भर
उंडेलता हूँ
तपते ख़ुद पर
भर लेता हूँ पूरा
रोम रोम
लबालब,
तैयार
अगले मौसम की
नई फ़सल को ।

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