Monday, February 10, 2014

वो

बड़ोग के
सुनसान
ऊँचे
उजाड़
पहाड़ पर
आधी रात
वो
दिखती है
वहाँ रहती है
सुनता था ।

उस रात
आधी रात
वहीँ से
गुज़रना था,
इसी का
डर था ।

वहाँ पहुँचा
वो आई
मैं डरा
भागनें से
पहले
रुका
हिम्मत कर
रुका रहा
उसे देखता ।

वो आई
और करीब
बिन देखे मुझे
मिली
अन्दर मेरे
किसी को
कुछ देर
बहुत देर,
उठी
निकली
उड़ गई
बिन देखे
पीछे
छोड़ मुझे
सन्नाटे सा
स्तब्ध ।

अब क्या करूँ?
डरूँ?
किससे?

डरा था जिससे?
वो तो गई!!!

पता नहीं
खुद
या बदल उसे
जो अंदर थी ।

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