जीवन की
ऊन
की डोर
जब
उलझ जाती
बहुत ज़्यादा,
निकल जाता हूँ
शहर से
मील के पत्थरों
के रास्तों
खोल बिछानें
हर उलझन की
लम्बाई
दूर तक।
जाता हूँ
छोर तक
और
लौटता हूँ
समेटता
हाथों पे
सुलझी डोर
बनाते
सम्भालते
जीवन का गोला,
या बुनते
आशाओं का
स्वैटर
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