Friday, March 21, 2014

सैलाब

टूटा है
अन्दर
आज
कुछ
ज़रूर,
इतनी जोर से
जो
सन्नाटे
की
आवाज़
आई है!

इस बार
है यक़ीनन
कोई बुत
या उसका ख़ुदा
जिसकी
पाज़ेब
चटखने की
आह
पुरज़ोर आई है।

अपनें ही
ज़मीर
के इशारे से
जो
रोके थी
सैलाब के पाँव,
उसी
नज़र ए नाज़ुक
की आह नें
पलकें झुकाई हैं।

सदमा ए क़यामत
ही तो है,
सह लेंगे,
कौन
किसी
दिले बीमार
की
आतिशे फ़रियाद आई है।

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