Wednesday, March 26, 2014

खिड़कियाँ

बैठा हूँ
आँखों की
खिड़कियो में
कहीं,

दिखती है
दुनिया
एक तरफ़,
सामनें,
बाहर

और पीछे
नीचे
गहरे अँधेरे
है
कहीं
एक और दुनिया
पुकारते
मेरा नाम
दिन भर
कई बार,

करती
मुझ पर
झूठा दावा,

बुलाती
खींचती
मुझे
गूँजकर।

जाऊँ किधर?

कूदूँ बाहर
या फिसल जाऊँ
भीतर?

उड़ जाऊँ
या
कर दूँ
समर्पण?

या
बैठा रहूँ
यहीं
आज़ाद मुंडेर
देखता
दोनों दुनिया!

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