Tuesday, March 25, 2014

फ़व्वारा

जो जो
जब जब भी
उठा
ज़मीं से
मिट्टी के फव्वारे सा
देह बन,
गिरा
देर सवेर
वहीं
या कहीं,
कुछ बहा
और
रिस गया
नीचे
वापिस
फूटनें
फिर
कभी
कहीं
आधा
अधूरा
या पूरा!

छोड़
वक्त
पीछे
ऊपर
मंडराता
वहीं
तितली सा
विचलित
करता इंतज़ार
युगों लम्बा

No comments:

Post a Comment