Thursday, March 13, 2014

कविता

कवि
कर लो
कुछ आराम
होनी को
होने दो।

चढाओ
दवात पर छत
कलम को
सोने दो।

सूखनें दो
वर्कों के
सपाट मैदानों में
छिछली
नीली नदियों
की स्याही,
बात को
रहनें दो।

रहनें दो
आज
शब्दों के
तरकश
टंगे
नफ्ज़ कशी*                  (*self denial)
की कील पर,
ख्यालों में
मर मिटनें
की कवायत
रहनें दो।

न बुझाओ
ये
प्यास की
आग
तरन्नुम के
नीर से,
जलनें दो
धू धू
भीतर,
ख़ुदी को
स्वाह
होनें दो।

गुज़र जानें दो
कशमकश
की आँधियाँ
जज़बातों
के ग़ुबार
उड़ने दो,
भटकनें दो
ख़ुद को
सराब* में              (*mirage,मृग मरीचिका)
बिन कागज़ कलम,
सहरा** में                      (**desert)
हो गुम
कुछ
मिल जाने दो।

लिखनें दो
आज
हवाओं को
कविता
किरणों से
ज़मीं पर,
आज तुम
रुको
कुदरत को
कहनें दो।

कवि
कर लो
कुछ आराम
कलम को
सोनें दो

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