Tuesday, March 11, 2014

सब

दार जी
की मिट्टी,
बी जी
के चश्मों
के टुकड़े,
बचपन के कपड़ों
के रेशे,
स्कूल की
गिरी दीवार
की इंटें,
सारे आँसुओं का पानी,
खुशिओं के
ठहाकों से दबी हवा,
साँसों की गर्मी,
पैरों के
निशान से
हटी मिट्टी,
गावों के खेत,
शहरों की ज़मीन,
खंडरों के अवशेष,
इंटों में पकी आग,
आग की ठंडी राख़,
राख़ का ग़ुबार,
ग़ुबार की आह,

सब
यहीं तो हैं।

सौ साल
लम्बा
आज ही तो था
आज ही तो है।

मेरी
कब्र का सामान,
बच्चों की ज़िद
का जवाब,
दुनिया के वजूद
का इम्तेहान,
कल की बारिश,
परसों का तूफ़ान,
अगले बसंत
के फूलों
का पराग,
बैसाख
की फ़सल
के बीज,
दीवाली
के दीयों की
बातिओं की रुई
और आग,
सब यहीं
तो हैं।

हज़ार साल लम्बा
आज ही तो होगा
आज ही तो है।

घूमता
डूबता
निकलता
सूरज,
यहीं तो था
यहीं तो है।

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