100 करोड़ लोग
अचानक
कहीं गायब हो गए।
सुबह
बसें खाली थीं
जो बचे
बैठ कर गए।
फ़ुर्सत की
उस शाम
भीड़ के आदी
भाग कर
पहाड़ चढ़ गए,
पीछे
कुछ समन्दर उतरे
कुछ आसमान उड़ पड़े,
रातों से जागे
जो बचे
बगीचों सो गए।
दूसरी सुबह
भीड़ की दीवार से परे
जो था
दिखनें लगा।
अकेलापन
जो भीड़ में था
सुलानें लगा
गोद में सहला।
धूप
हवा पर बैठ
आ गयी
बंद गलियाँ,
परछाइयाँ
डराना छोड़
चलनें लगीं
पकड़ उंगलियाँ ।
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