Monday, March 24, 2014

सुबह

सूरज के
पिछली गली
से
घूम
लौट आनें
को ही
सुबह
कैसे
कह दूँ,
मेरी दुनिया
भी
कुछ पलटे
तो सवेरा
समझूँ।

पूरब से
जो घुली है
कुछ रात की
स्याही
मेरी निराशा
की भी
पौ फटे
तो उजाला समझूँ।

तारे हैं
सब डूब चुके,
चाँद के कदम भी
दहलीज़ पर हैं,
मेरे आसमानों
से भी
बादल उतरें
और
मैं निकलूँ।

मस्जिद से
जो उठी है
अज़ान की आवाज़
मेरा रोम रोम
भी झुके
तो नमाज़ समझूँ।

चिड़ियाँ तो
निकल आईं
घोंसलों से
चहचहाती
मेरी खिड़की,
मेरा दिल भी
फड़फड़ाए
कुछ गाये
तो
ज़िन्दा समझूँ।

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