देता न ज़ेहमत आपको, जाता चला ख़ुद ही, चल के, होने को दफ़न, गर वक्त आखिरी का इल्म होता।
निकला था दावत ए जश्न के बुलावे पर, जब इस्तकबाल को मेरे मेज़बान ए जनाज़ा निकला।
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