Thursday, June 12, 2014

बड़ी बात

न होती
घड़ी
तो क्या
बड़ी
बात होती,
हर सुबह
ही तो
होती
सुबह,
शाम को
शाम
होती।

होता
वक्त ही
वक्त,
सुई काँटे
की न तलवार
लटकती,
घबराता
न दिल
हर गुज़रती
टिक टिक पर
उसी
सुबह की
वही
जानी पहचानी
शाम होती।

न होती
वक्त की
खबर
मगर
वक्त तो
होता,
इंतज़ार की
घड़ियाँ
न होती
तल्ख़,
कुछ
लुत्फ़ तो
होता।

ढूँढ़
लेते
दो चार
बड़ी
निशानियाँ
काम की
बात करते,
लम्हों की
कीमत
वसूलनें को
बेकार न
हरदम
तिजारत होती।

हथेलियों
में होता
मुस्तकबिल
का पता,
कलाई की
नब्ज़
न होती
बंधी,
आज़ाद
होती,

न होती
घड़ी
तो क्या
बड़ी
बात होती।

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