Saturday, May 17, 2014

मिलन

गुरु जी
कहाँ हो?

बैठे हो
सामनें
ऊपर
तख़्त पर,
या हो
बहते
कीर्तनियों
के संगीत में!

झूमते हो
संगत के
आनंद में,
उड़ते हो
कढ़ाह प्रसाद
की
सुगंध बन,
या
महकते हो
अगरबत्ती की
लहरों में...

जगमग
जगते हो
दीयों की लड़ी में
या
बिछे हो
कालीन बन
धरती पे
आकाश से...

अपनें ही
घर द्वार
हो
सोते
नन्हा बालक बन
माँ की गोद,
या
भागते हो
इधर उधर
बन
उछलती
कूदती
वो
नन्हीं
बच्ची!

कहाँ हो,
आया हूँ मिलनें
आपको
आपके
द्वार ।

No comments:

Post a Comment