Saturday, May 24, 2014

ताज

हर सुबह
करता हूँ
ख़ुद की
ताजपोशी,
अपनें ही हाथों
अपनें सर
ताज
रखता हूँ |

करता हूँ पूरी
ताजपोशी की
रसमें
उसी के दरबार,
उसी की वाणी से
मंत्रोच्चार करता हूँ,

होता है
सुकून का
खामोश
शंखनाद,
रग रग में
नवजीवन का
संचार करता हूँ |

परत
दर परत
समेटता
बाँधता
सजाता हूँ
सच का उजाला,
उसकी रज़ा में
ख़ुदमुख्तारी का
ऐलान करता हूँ,

जब दस्तार
पहनता हूँ|

उसके नूर
का कोहिनूर
है जड़ा,
कैसा
बेशकीमती
नसीब पहनता हूँ!

क्या दस्तार पहनता हूँ!

कस के
रखता हूँ
ज़हन में
कफ़न की हक़ीक़त,
कानों के बीच
फ़र्ज़ की
आज़ान रखता हूँ|

कभी कलम
कभी हाथों से
लेता हूँ
शमशीर का काम,
बना
उसके नाम को ढाल,
निश्चय को
हाथियों का
पैर करता हूँ,

जब निकलता हूँ
उठा के सर
दस्तार पहनता हूँ|

छोड़
ज़मीन के टुकड़ों
की सियासत
की रियासत,
ब्रह्माण्ड की
सोच का
विस्तार करता हूँ,

करनें
निकलता हूँ
फ़तेह,
ख़ुद को,
हर रोज़,
अच्छे निज़ाम का
इंतज़ाम करता हूँ,

ख़ास मालिक
का हूँ
आम आदमी,
उसी के
हुक्म से
साँसों की
हुँकार भरता हूँ,

जब
दस्तार पहनता हूँ |

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