Monday, May 5, 2014

नदी

जो
है
नदी
की ज़िद,
कर
लेने दो
उसे,
बहने
मुड़ने
रुकने
चलने दो
वहीं से
वैसे ही
चाहे वो
जैसे...

न जाने
सागर से
उठ
बादलों
की कैद से
तलहटी में
दोबारा
फिर
यहाँ
कब
बरसे!

No comments:

Post a Comment