Saturday, May 17, 2014

मंज़र

था पहुँचा
अब्दाली
जब
लेकर
हज़ार तीस
घोड़ों पर
लड़ाके,
करनें
फ़तेह
दुनिया के बाद
हरिमंदिर,

देख द्वार
के अन्दर
का
पहला मंज़र
था हुआ
हैरान
बे इन्तेहा,

पाकर
तैयार
मिटनें को
नूर से रौशन
सच्चाई के
वो
तीस शेर।

आया है
जो
आज फिर
वही शाह
चलकर
पैदल
निवाने सर,
लौटाने
वही दुनिया
उसी मन्दिर,
देख
द्वार के
अंदर का
बदला मंज़र
है
हैरान
बे इन्तेहा
फिर,

है
तड़पता
देखनें को
उसी नूर
से रौशन
फिर
कहीं
वही
शेर।

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