साँसों की तितलियाँ
Saturday, May 31, 2014
ज़ुल्म
कलम पर
इक
ज़ुल्म सा
ताउम्र
हम
करते रहे,
नहीं
पूछी
कभी
मर्ज़ी
उसकी,
बस
हाथ पकड़
अपनी ही
लिखते
रहे।
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