Monday, May 19, 2014

घूँट

जिस्म
के बाहर
था
अकेलापन,
घूम फिर
फिर
आया हूँ
लौट
भीतर...

उतार
मजबूरी के
जूते
फर्ज़ के
मोज़े,
रख
होश के
नंगे पाँव,
सामने
हकीक़त
की
मेज़ पर,
बैठ
बेपरवाही के
सोफ़े पर,
पी रहा हूँ
खुली खिड़की
के गिलास में
सुकून की
ठण्डी हवा
घूँट घूँट।

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